अ पने आप से प्यार करने का मतलब है खुद को सम्मान देना, खुद को स्वीकार करना, और अपनी भलाई का ख्याल रखना। यह एक ऐसी भावना है जो हमें आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास से भर देती है। इसका मतलब है कि हम अपने अच्छाइयों और बुराइयों को बिना किसी शर्त के स्वीकारते हैं और अपने आप को बेहतर बनाने की दिशा में निरंतर प्रयासरत रहते हैं। अपने आप से प्यार करना यह भी दर्शाता है कि हम अपनी जरूरतों और इच्छाओं को समझते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए समय निकालते हैं। हम अपनी भावनाओं और विचारों को महत्व देते हैं और खुद के प्रति दयालुता की भावना रखते हैं। Self love की भावना हमारे छोटे-छोटे कार्यों से भी झलकता है, जैसे कि समय पर आराम करना, अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना, और खुद के लिए समय निकालना आदि। सेल्फ लव का मतलब स्वार्थी होना कतई नहीं है। अपने लिए क्या अच्छा है और बुरा , की जानकारी हम सभी को होनी चाहिए। यह समझना कि हम पूर्ण नहीं हैं, लेकिन फिर भी हम अपने आप को संपूर्णता में स्वीकार करते हैं, अपने आप से प्यार करने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह हमें आंतरिक शांति और संतोष प...
परिचय: तकनीकी युग में बच्चों का बचपन आज का युग डिजिटल क्रांति का है, जहां तकनीक ने हमारे जीवन के हर हिस्से को बदल कर रख दिया है। बच्चे, जो कभी अपने बचपन में खेल के मैदानों में दौड़ते, दोस्तों के साथ खेलते और प्राकृतिक वातावरण में रोज कुछ नया सीखने में गुजारते थे, अब ज्यादातर समय मोबाइल स्क्रीन या TV स्क्रीन के सामने गुजर रहा है। मोबाइल फोन, जो कभी वयस्कों का साधन हुआ करता था, अब बच्चों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है। चाहे वह ऑनलाइन गेम हो, वीडियो देखने का शौक हो, या सोशल मीडिया का छोटे- छोटे रीलस् । बच्चों की दुनिया अब मोबाइल के इर्द-गिर्द घूमने लगी है। हालांकि, यह तकनीक ज्ञान और मनोरंजन के नए रास्ते खोल भी रही है, लेकिन इसके साथ ही यह बच्चों के मासूम बचपन को धीरे-धीरे निगल रही है। डिजिटल लत न केवल उनके मानसिक और शारीरिक विकास पर प्रभाव डाल रही है, बल्कि उनके सामाजिक जीवन और व्यवहार पर भी गहरा असर डाल रही है। इस लेख में हम मोबाइल की इस दुनिया में खोते बचपन को समझने का प्रयास करेंगे, और इस डिजिटल लत से बच्चों को कैसे बचाया जा सकता है, इस पर चर्चा करेंगे। खेल का मैदा...
पढ़ाई का बीच में छूट जाना आदिवासी समाज चूंकि हमेशा से ही पढ़ाई लिखाई से वंचित रहा हैै। शायद इसीलिए समाज में कभी शैक्षणिक माहौल नहीं बन पाया। श्रम प्रधान समाज होने के कारण शारीरिक परिश्रम करके जीवन यापन को तवाज्जू दी गई। जैसे कि खेती करना, मजूरी करना, भार ढोना आदि। हर वो काम जिसमें ज्यादा बल की जरूरत होती हैं। आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के कारण अच्छे स्कूलों को अफोर्ड नहीं कर सकते। आदिवासी समाज के मैक्सिमम बच्चों का एडमिशन सरकारी स्कूलों में करा दी जाती है। सरकारी स्कूलों का पढ़ाई का स्तर क्या है हम सभी को पता है। इसमें किसकी गलती है उसमें नहीं जाना चाहता। चुकीं हम पढ़ाई में खर्च नहीं करते , इसीलिए इसकी शुद्धि भी नहीं लेते। हमने तो बच्चे का एडमिशन करा करके अपने जिम्मेवारी से मुक्ति पा लिया। बच्चे का पढ़ाई लिखाई कैसे चल रही है इसका खबर भी नहीं लेते। समय के साथ जरूरतें भी बढ़ती है। शारीरिक श्रम करके एक अकेला या परिवार उतना नहीं कमा पाता। ज्यादा कमाने के लिए ज्यादा संख्या और ज्यादा शारीरिक बल की आवश्यकता होती हैं। फिर क्या बच्चे भी श्रम कार्य में उतर जाते हैं। और फिर बाहर के प्रदेशों म...
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