पढ़ाई का बीच में छूट जाना
आदिवासी समाज चूंकि हमेशा से ही पढ़ाई लिखाई से वंचित रहा हैै। शायद इसीलिए समाज में कभी शैक्षणिक माहौल नहीं बन पाया। श्रम प्रधान समाज होने के कारण शारीरिक परिश्रम करके जीवन यापन को तवाज्जू दी गई। जैसे कि खेती करना, मजूरी करना, भार ढोना आदि। हर वो काम जिसमें ज्यादा बल की जरूरत होती हैं। आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के कारण अच्छे स्कूलों को अफोर्ड नहीं कर सकते। आदिवासी समाज के मैक्सिमम बच्चों का एडमिशन सरकारी स्कूलों में करा दी जाती है। सरकारी स्कूलों का पढ़ाई का स्तर क्या है हम सभी को पता है। इसमें किसकी गलती है उसमें नहीं जाना चाहता। चुकीं हम पढ़ाई में खर्च नहीं करते , इसीलिए इसकी शुद्धि भी नहीं लेते। हमने तो बच्चे का एडमिशन करा करके अपने जिम्मेवारी से मुक्ति पा लिया। बच्चे का पढ़ाई लिखाई कैसे चल रही है इसका खबर भी नहीं लेते। समय के साथ जरूरतें भी बढ़ती है। शारीरिक श्रम करके एक अकेला या परिवार उतना नहीं कमा पाता। ज्यादा कमाने के लिए ज्यादा संख्या और ज्यादा शारीरिक बल की आवश्यकता होती हैं। फिर क्या बच्चे भी श्रम कार्य में उतर जाते हैं। और फिर बाहर के प्रदेशों में श्रम कार्य करने चले जाते हैं। जब तक समझ में आएं तब तक धीरे धीरे बच्चे का स्कूल छुट चुका होता है। दशवी कक्षा तक आधे से ज्यादा बच्चे स्कूल ड्रॉपआउट होते हैं। बारहवीं कक्षा तक तो सिर्फ 10-12% हीं पहुंच पाते हैं। ग्रेजुएशन तो 1% से भी कम लोग कर पाते हैं।और इसके ऊपर की पढ़ाई के बारे में क्या बोलें।
टेक्निकल नॉलेज पर ध्यान नहीं देना
मैं आपको पहले ही बता चुका हूं कि आदिवासी समाज एक श्रम प्रधान समाज है। आदिवासी समाज टेक्निकल नॉलेज के मामले में बहुत पीछे हैं। वैसे काम जिसमें थोड़ा टेक्निकल नॉलेज की जरूरत पड़ती है करना नहीं करते। बहुत से ऐसे आदिवासी युवक हैं जिन्होंने टेक्निकल संस्थानों से टेक्निकल नॉलेज ले रखी है, लेकिन उस नॉलेज को अर्थोपार्जन में उपयोग नहीं करते। अभी के समय में एक क्लिक मात्र से दुनिया की सारी उपयोगी जानकारी हमारे सामने होती हैं।अगर हम स्मार्ट फोन का सही उपयोग करके सीखना चाहें तो सब कुछ सीख सकते हैं। सीखने की कोई उम्र तो होती नहीं। कॉम्प्लिकेटेड मशीनों को देखकर घबरा जाते हैं। सारी मशीनें इंस्ट्रक्शन से चलती है बस उसे हमें फॉलो करना होता है।भाषा बैरियर का बात तो अभी है ही नहीं। हम छोटी से छोटी जानकारी के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं।कोई भी काम करने से पहले टेक्निकल नॉलेज का अभाव होता हैं।बड़ी आस की नजरों से इस उम्मीद में रहते हैं कि कोई हमें बताएं या मदद कर दें। आज से ही हमें टेक्निकली स्मार्ट बनने की दिशा में काम करना शुरू कर देना चाहिए। क्या आप टेक्निकली स्मार्ट हैं। बताइएगा जरूर।
सामाजिक नशाखोरी
सामाजिक नशाखोरी सामाजिक पिछड़ेपन के सबसे बड़े कारणों में से एक हैं। का एक बड़ा हिस्सा नशापान के गिरफ्त में हैं। बच्चे,जवान, बूढ़े सभी नशाखोरी में संलिप्त हैं। लगातार नशापान के कारण स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। कमजोर स्वास्थ्य के कारण अपने कामों में कन्सन्ट्रेट नहीं कर पाते। समुच्चय में समाज के प्रोडक्टिविटी में इसका असर पड़ता है। आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण समाज की दरिद्रता बढ़ती हैं।
सीखने की ललक का अभाव
सीखने की कोई उम्र नहीं होती।कहीं भी, कभी भी, किसी से भी, काम की चीजों की जानकारी सीखी जा सकती हैं। जरूरत पड़ने पर उम्मीद भरी नज़रों से दूसरे की आश लगाए रहते हैं कि कोई हमारी मदद कर दें। बहुत बार छोटी से छोटी चीजों को कराने के लिए pay करना पड़ता है।
देखा ये जाता है कि जब हमारी पढ़ाई पूरी हो जाती है या किसी कारणवश छुट जाती हैं। उसी दिन से हम सीखना छोड़ देते हैं। लिखाई पढ़ाई से हमारा वास्ता खत्म हो जाता है। जब हम जीविका उपार्जन के कामों में लग जाते हैं। उन्हीं सब कामों को ज्यादा तबज्जु देते हैं या करना पसंद करते हैं जिसको कि हम अपने बाप दादाओं को करते हुए देखा होता है। कोई नया काम सीखना नहीं चाहते। काम के बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जिन क्षेत्रों में हमारे लोगों का अभी तक कदम भी नहीं पड़ा है।हम अपने कंफर्ट जॉन से बाहर निकलकर कोई नया काम नहीं करते।
कहा जाता है ना कि कोई भी काम छोटा नहीं होता हैं। इसमें बहुत बड़ी कहानी छुपी हुई होती हैं। हम छोटी काम को भी बड़ी बना सकते हैं। काम से संबंधित नित्य नई अपडेट सीखते रहना पड़ेगा। नई नई टेक्नोलॉजी का उपयोग करना पड़ेगा।मान लीजिए हम खेती ही करते है तो हमे ज्यादा पैदावार और ज्यादा आमदनी के लिए परंपरागत तरीका छोड़कर खेती करने की आधुनिक तरीकों को अपना पड़ेगा। हम अपना काम करने के लिए आधुनिक तरीकों का उपयोग नहीं करते। साफ कहें तो हम सीखना ही नहीं चाहते और परम्परागत तरीकों पर हीं अटके रहते हैं।
हमेशा अपने आपको कमतर आंकते हैं
चाहे हम किसी भी विषय विशेष पर या किसी भी काम विशेष पर पारंगत हासिल किया हो।किसी दूसरे का बात सुनकर अपने आपको बौना या कम निपुण महसूस करते हैं। सामने वाला हमसे कम नॉलेज वाला ही क्यों ना हो। उसी को ज्ञानी या काबिल समझते हैं। और अपना कॉन्फिडेंस लेवल खो देते हैं। हमारी चेहरे की तेज कम पड़ जाती हैं। हम अपने बातों को जनसभाओं में या लोगों के सामने उस तरीके से रख नहीं पाते जिस तरीके से हम सोचते हैं। या कहें कि अपने आपको जोरदार तरीके से प्रस्तुत नहीं कर पाते। अपना लोहा नहीं मनवा पाते। हमारी बातों को सुनकर लोग हमारे बारे में क्या सोचेंगे। इसी उधेड़ बुन में फसे रहा जाते हैं और लोग आगे निकल जाते हैं। क्या आप भी यही सोचते हैं क्या ? बताइएगा ज़रूर।
पैट्रिक संपति पर इतराना
पैट्रिक संपति पर नाज़ होना भी चाहिए। क्योंकि यह हमें आशीर्वाद स्वरूप अपने बाप दादाओं से मिली हुई होती हैं।इसका संरक्षण करना चाहिए और इसमें इज़ाफ़
भी करते रहना चाहिए। हम में से ज्यादातर लोग पढ़ाई ठीक से ध्यान देकर नहीं करते। पढ़ाई में जुनूनी ललक नहीं दिखते। बहुत ही पूअर परफॉर्मेंस होता हैं। मौज मस्ती और पीने खाने में लगे रहते हैं। पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। कोई भी नई काम को ध्यान लगाकर नहीं सीख पाते।पढ़ाई के साथ सीख कर निपुणता हासिल नहीं कर पाते। हमारे लोगों में सबसे बड़ी भयानक सोच यह है कि पढ़ाई ठीक से नहीं कर पाए या किसी कार्य विशेष को सीख नहीं पाए तो कोई बात नहीं बाप दादाओं का ज़मीन तो है ही हमारे पास।उसी में खटकर/कमाकर खायेंगे। जरूरत पड़ी तो मजदूरी भी करेगें और बाहर प्रदेशों में कमाने भी जाएंगे। यह सोच हमारे समाज को पीछे और बहुत पीछे खींचकर ले जाता हैं। इस बात में कितनी सच्चाई है हमें जरूर बताएं।
सीखने में खर्च नहीं करते
दुनियां में सीखने के लिए बहुत कुछ हैं। दुनियां में काम की कोई कमी नहीं हैं। सीखाने वालों की भी कमी नहीं हैं। बसरते सीखने की ललक तो हों। हमें सब कुछ पता होता है लेकिन करना ही नहीं चाहते। बहुत सी जरूरत की चीजें ऐसी होती हैं जिसको सीखने के लिए बहुत ही कम पैसों और समय की जरूरत होती हैं। अपनी वैल्यू बढ़ाने के लिए अपने उपर खर्च करने से बचते हैं। बहुत मामलों में हमारे पास पैसों की कोई कमी भी नहीं होती। बेकार के कामों में पैसा उड़ा देंगे पर अपनी गुणवत्ता नहीं बढ़ाएंगे। क्या ये बात सही हैं?
लड़की बच्ची के पढ़ाई पर ध्यान नहीं देना
वैसे तो हमारे समाज में लड़का लड़की में कोई भेदभाव नहीं किया जाता। परिवार में दोनों का दर्जा एक समान हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि जब पढ़ाई में खर्चे की बात आती हैं तो हम में से ज्यादातर घरों में लड़कियों को लेकर हमारी हाथ थोड़ा तंग हो जाती हैं। हम लड़कों के पढ़ाई में दिल खोलकर खर्च करते हैं और उन्हें अच्छे स्कूलों में भेजते हैं और लड़कियों को सरकारी या कम खर्च वाली स्कूलों में। लेकिन सभी माता पिता इस सोच के नहीं होते ।अंदरूनी दलील यह होती है कि लड़की को तो शादी करके दुसरे के ही घर जाना है। इस तरह की सोच हमारे समाज को पीछे ले जाता है। लड़कियों को हम पढ़ाई में पूर्ण मौका नहीं देते।
लेकिन अक्सर यह देखा जाता है कि पढ़ाई में लड़की की अच्छी होती है। हम यह भूल जाते हैं की एक अच्छी पढ़ी लिखी मां ही एक अच्छा परिवार का निर्माण कर सकती है। जहां बात मम्मी पापा के सेवा की है तो इस मामले में लड़कियां लड़कों से बेहतर है। इस बात में कितनी सच्चाई है बताइएगा जरूर।
समाज का बुद्धिजीवी वर्ग
हमारे समाज में एक भी वर्ग ऐसा है जो well educated, well settled, ब्यूरोक्रेट्स, लीडर,विचारक, अच्छे कारोबारी और नौकरी करने वाले हैं। इनमे से ज्यादातर लोग अलग ही status maintain किए हुए हैं। इनलोगों के पास बड़ी ही अच्छी समझ होती हैं। समाज के सभी विसंगतियों के बारे में इनको पता होता है। अगर ये सभी अपने जीवन के व्यस्ततम समय में से जब कभी भी possible हो, थोड़ी सी समय समाज के लिए , अपनी सोशल रिस्पांसिबिलिटी को समझते हुए सुधार की पहल करेंगे या समाज के लोगों के बीच अच्छे जानकारी देंगे तो हमारा समाज एक दिन में तो नहीं लेकिन एक दिन जरूर बदलेगा। और ऐसा भी नहीं कि समाज के ये अग्रिम लोग समाज हित में काम नहीं कर रहे हैं। लेकिन बड़ा परिवर्तन के लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत हैं।
समाज के पिछड़ेपन का कारण हम ख़ुद हैं
समाज के backwardness के सबसे बड़े कारणों में से हम खुद हैं।अगर हम बेरोजगार हैं या हमारे पास करने को कोई काम नहीं है तो इसके लिए हम किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। काम करने को तो बहुत कुछ हैं लेकिन अपने हाथ में कुछ भी नहीं । इसका केवल और केवल एक ही कारण हो सकता है । या तो हमने पढ़ाई ठीक से नहीं की हैं या हमने कोई काम सीखा नहीं हैं। इनमे से अधिकतर लोग गलत आदतों के ज़ंजीरों में जकड़े हुए होते हैं और अपनी गुणवत्ता बढ़ाने वाली कामों में ध्यान नहीं देते। इनमें से ज्यादातर लोग अपनी हालत सुधारने की कोशिश नहीं करते और अपनी स्थिति को बदतर कर देते हैं। इसका सम्मुच्य असर समाज के productivity और गुणवत्ता पर पड़ता है। अगर हम बदलेंगे तो समाज बदलेगा।
कुरीतियों के जंजाल में फसा होना
नशापान हमारे समाज में ऐसा रच बस गया है कि इससे बाहर आना लगभग नामुमकिन सा जान पड़ता है। कोई भी अवसर ऐसा नहीं होता हैं जिसमे इसका उपयोग ना होता हो। चाहे नॉर्मल सिचुएशन हो, खुशी का अवसर हो या दुःख का। सबसे दुःख की बात यह है कि इसे हम अपने संस्कृति का हिस्सा मानते हैं और बेतुकी तर्क देकर इसको बढ़वा देते हैं। ये समाज के लिए दुर्भाग्य की बात है।
जब हमारे समाज में कोई बीमार पड़ता है या कुछ हो जाता है तो इसका जो वास्तविक कारण है उसको जानना नहीं चाहते या जानते ही नहीं और इसका कुछ अलग ही एंगल ढूंढने लग जाते हैं। सच्चाई से हम कोशो दूर रहते हैं। अंधविश्वास समाज का हिस्सा ही बन गया है।
- हमारे लोगों में रोजगार उन्मुखी कोर्स या वोकेशनल कोर्स नहीं करते।
- अधिकतर लोगों में कॉम्पिटिशन की भावना का अभाव होता है।
- देश दुनिया में घट रही घटनाओं की जानकारी नहीं रखते।
- बिजनेस करने के प्रति हमारे लोगों में उदासीनता हमारे समाज को पीछे खींच के ले जाता है।
- हम अपने बच्चों के पढ़ाई लिखाई के लिए अच्छा माहौल नहीं बना सकते।
- समाज से परे लोगों के साथ हमारा इंटरेक्शन बहुत ही कम होता है। इसीलिए संगठित समाज के अच्छी चीजों को नहीं सीख पाते।
- हम देश दुनिया तो घूमते हैं लेकिन देश दुनिया की अच्छी चीजों का अपने समाज में नहीं ला पाते।
- हमारे समाज में विजनरी लोगों की कमी होती हैं।
- हमारे जनप्रतिनिधि हमारे सवालों को जोरदार तरीके से सरकार के समक्ष नहीं उठा पाते। हमारे समाज में समस्याओं का अंबार होते हुए भी बेसिक फैसिलिटी नहीं दिला पाते।
- आदिवासी इलाकों के सरकारी स्कूल कॉलेज का खस्ता हाल होना है।
- आदिवासी समाज की सबसे बिकट स्थिति यह है कि हमारे माताएं एवम् बहनें ज्यादा काम करती हैं और पुरुष बैठकर टाइम पास करते हैं।
- बहुत बार देखा यह जाता है कि समाज के पिछड़ेपन के कारणों में अपने ही समाज के लोग होते है। अपना मतलब पूरा करने के लिए भीड़ का उपयोग करते हैं और मतलब सिद्ध हो जाने के बाद गायब हो जाते हैं। हमारे पास कई एक ऐसे उदाहरण है।
- ग़रीबी और अशिक्षा हमारे समाज के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण हैं। ये दोनों ऐसी स्थिति हैं जो कभी समाज को आगे नहीं बढ़ने देती।
- हमारे लोगों में लीड करने की भावना का अभाव होता है। आगे आना नहीं चाहते हैं।
- हमारे लोग संगठन में तो होते हैं लेकिन संगठन का उत्तरदायित्व को नहीं समझते। संगठन के ताकत के एहसास नहीं होता।
- सांस्कृतिक विरासत के इंपॉर्टेंट को नहीं समझते।
- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ग्रहण नहीं करते।
- अपना लिविंग स्टैंडर्ड को नहीं सुधारते।
- हमारे अधिकांश लोग मुख्यधारा के साथ जुड़े हुए नहीं होते।
- लेखन जारी है
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- समस्या प्रोग्रामिंग में होती है प्रिंटआउट में नहीं।
- अपने बच्चों के लिए रोल मॉडल बनें।
- अच्छे कामों को आसान और बूरे कामों मुश्किल बनाएं।
- पहला अध्याय:-नशााखोरी क्या है और इसकी शुरुवात कैसे होती हैं ?
- दूसरा अध्याय :- लत क्या है और इसकी पहचान कैसे होती हैं?
- तीसरा अध्याय:- सामाजिक नशाखोरी के दुष्प्रभाव ।
- जैसा जड़ वैसा फल।
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- परिवेश का असर
- एकता
- छोटे बदलाव का जादू।
- दोस्त हो तो अच्छी आदतों जैसा वरना हो ही ना।
- लक्ष्य प्राप्ति के प्रोसेस को याद रखें लक्ष्य को नहीं।
- विनती भजन और प्रार्थना की महिमा को समझें।
- स्वयं को जीतना दुनिया जीतने के बराबर।
- ASSRB
नोट:- इस लेख के बारे में अपना बहुमूल्य सुझाव अवश्य दें।आप की संरचनात्मक सुझाव हमें दिशा प्रदान करेगी। सरना बिल्ली में हमारे समाज में व्याप्त विसंगतियों के सभी पहलुओं पर चर्चा की जाएगी।नित्य नई Case study के साथ जुडे रहने के लिए Follow करे। बदलाव की शुरुआत पहले कदम से होती है।
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