एक संदेश समाज के नाम
पेड़ लगाकर हों किसी भी कार्यक्रम का शुभ आरंभ
जो प्रकृतिवादी हैं, जो अपने आपको प्रकृति पूजक कहते हैं , उनका तो प्रकृति संरक्षण में सबसे बड़ा हाथ होना चाहिए । हर पर्व - त्योहार या किसी भी कार्यक्रम का शुरूवात पेड़ लगाकर करना चाहिए। चाहे वह शादी - विवाह हो, त्योहार हो या जन्म दिन हो। इन सब मौकों का शुरूवात वृक्षारोपण के साथ करना चाहिए। क्यों कि वृक्ष ही प्रकृति का गहना होता है। शृंगार को बनाएं रखना हमारे अस्तित्व को बनाएं रखने जैसा है। तभी हम सही मायने में प्रकृति पूजक कहे जाएंगे।
अपने सुपर फूड का संवर्धन करें
जिस लजीज प्राकृतिक खान पान के कारण हमारे पूर्वज तंदुरुस्त और निरोग हुआ करते थे । आज हमें उसका स्वाद पसंद नहीं है। हमारे बच्चों ने तो उसका स्वाद चखा ही नहीं कभी और न हमने कभी बताना ज़रूरी ही समझा। जैसे कि कटाई साग, फुटकल साग, कोईनार साग, बेंग साग, चाकोड साग, और न जाने कितने ही है। फिलहाल यह हमारे मेनू से गायब है। यह आदिवासी सुपर फूड हमारे प्रति रक्षा प्रणाली को बूस्ट करने का काम करती है। यह सुपर फूड विटामिन और मिनरल्स का भंडार है। अब यह हमारी जिम्मेवारी है कि इन सुपर फूड का संवर्धन करें और इन्हें बचा कर रखें। और इससे भी ज्यादा जरूरी का बात यह है कि इसे अपने मेनू में शामिल करें।
आदिवासी Millets(श्री अन्न )
आज से दो दसक पहले तक हम अपने खेतों में Millets का भरपुर उत्पादन किया का करते थे।बाजारीकरण और low demand के कारण उत्पादन ख़तम हो गया । अभी स्थिति यह है कि ये Millets हमारे थाली से गायब है। हमारे पूर्वज इसकी उपयोगिता बखूबी समझते थे। वे Millets हैं मडुवा, गोडा(रेड rice) , गोंदली और करहाईन धान(ब्राउन राइस) जो कि हमारे क्षेत्र में बहुत तायत में उगाई जाती थी। कहाँ चले गये ये सब। लाइफ़स्टाइल मोडिफिकेशन के कारण बहुत बड़ी जनसंख्या ओबिसिटी, हाइपरटेंशन, कोलेस्ट्रॉल , ट्राइग्लिसराइड और ब्लड सुगर से जूझ रही है। आदिवासी मिलेट्स इन बीमारियों में फूड सप्लीमेंट के रूप में सबसे अच्छा विकल्प है। हमारे पूर्वज इन बीमारियों से कभी पीड़ित नहीं हुए। हमारे पूर्वज श्रीअन्न को, अन्न के रूप में खाते थे और हम अभी दवाइयां को अन्न रूप में खा रहे हैं। इसकी इंपॉर्टेंस को समझते हुए हमारी सरकार ने 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष के रूप में मना रहा है । अपने प्रति रक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए अपने पूर्वजों के बताएं फूड को अपने मेनू में शामिल करना होगा।
बेटी के पढ़ाई में ध्यान नहीं देना
बेटे की चाह में बेटियों की संख्या को बढ़ा देना। आखिर बेटे की ही चाह क्यों। जबकि सेंस ऑफ रिस्पांसिबिलिटी लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में ज्यादा होती है। जब बात पढ़ाई की आती है तो हम बेटियों के ऊपर कम ध्यान देते हैं बेटों की अपेक्षा। जब परिवार बेटों में बटती हैं तो माता-पिता का सेवा सबसे अच्छा बेटियां ही करती है। जागरूक बेटियों से जागरूक समाज का निर्माण होता है। हमें बेटों और बेटियों दोनों को ही आगे बढ़ने का बराबर मौका देना चाहिए।
गुणवत्ता रहित मानव संसाधन
जब गुणवत्ता पूर्ण मानव संसाधन निर्माण का समय होता है। तब हमारे समाज की युवा शक्तियां गलत आदतों और नशा पान के गिरफ्त में आ जाते हैं। हमारे समाज ने ड्रिंक एंड ड्राइव के कारण कई एक जिंदगियां खोई है। कई एक ऐसे फूल थे जो खेलने से पहले ही मुरझा गए।
गुणवत्ता रहित मानव संसाधन एक मजदूर समाज का निर्माण loudकरता है। स्किल्ड वर्कर नहीं होने के कारण हम हमेशा प्राथमिक कार्यों में ही लगे रह जाते हैं। और समाज गरीबी के जंजाल में फंस जाता है जो फिर कभी जीवन के उच्चतर स्तर को छू नहीं पता । गुणवत्तापूर्ण मानव संसाधन से परिपूर्ण समाज को ही देश दुनिया पूछती है।
देश को आपकी ईमानदारी और सादगी पसंद है।
ईमानदारी सादगी और उदारता हम आदिवासियों मे कूट कूट कर भरी हुई है।ये हम आदिवासियों के मुख्य आभूषण है। पूरी दुनिया इन गुणों का सम्मान करती है। हमारे इन्हीं गुणों का जरूरत देश के विकास में भी है। तो क्या आपको मुझे और हम सभी को देश विकास में इन गुना का उपयोग नहीं करना चाहिए? लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हम मानव संसाधन विकास के ऊपर ध्यान नहीं देते और मुख्य धारा में जुड़ नहीं पाते और अपनी बुनियादी कामों में लगे रहते हैं। देश को वह गुण नहीं मिल पाती जो आप में है।
यूनीफामिटी के बिना आदिवासी डांस संभव नहीं
आदिवासी नृत्य बिना यूनीफामिटी के संभव ही नहीं है। आदिवासी सांस्कृतिक नृत्य एक अकेले का नहीं होता। आदिवासी नृत्य लोगों के समूह का नृत्य है। समूह के बिना नृत्य हो ही नहीं सकती।यह नृत्य समूह का पूरक है। आदिवासी नृत्य सोलो डांस परफॉर्मेंस नहीं है। नृत्य में सिंक्रोनाइजेशन की जरूरत पड़ती है। एक साथ आगे बढ़ा जाता है।एक साथ पीछे लौट जाता है।एक साथ झुक जाता है। एक साथ खड़ा हुआ जाता है। नृत्य में कोऑर्डिनेशन ऐसा है की ना तो किसी का हाथ लड़ता है ।ना तो किसी का पैर लड़ता है ना कोई खींचातानी होती है और न कोई टक्कर ही होती है। आदिवासी नृत्य भीड़ कितनी है, में मैटर नहीं करता।
आदिवासी नृत्य सामूहिक एकता, कोऑर्डिनेशन और सिंक्रनाइजेशन का बहुत ही बेहतर उदाहरण है।
लेकिन हम आदिवासियों में यह गुण क्यों नहीं है। लोगों के बीच वैचारिक विविधता क्यों है। लोगों के बीच में परस्पर एकता का अभाव क्यों है। हमें हमारे पूर्वजों से प्राप्त सांस्कृतिक विरासत से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।
हम अपने पुरखों के बताये रास्ते के उलट चल रहें हैं।
इस संदर्भ में मैं आपको हमारे समाज में गाए जाने वाली पवित्र प्रार्थना(सिरा सीता नाले) की एक लाइन की चर्चा करने जा रहा हूं। वह लाइन इस प्रकार से हैं। नमहय पुरखर नशा पानी मला ओना लग गीयर। आर गुशन सादा धरम रहे चा। ईमन धरम रहेचा। सीधे-सीधे धर्मेश सीन पूजा नना लागियर।
यह लाइन हम सबको याद तो होगा ही। वर्तमान परिदृश्य में इस लाइन की कितनी प्रासंगिकता है हमारे समाज में। तो क्या हमें नहीं लगता है कि हम अपने पूर्वजों के बताएं रास्ते के उलट है। इस बात से यह साबित होता है कि हमारे पूर्वज नशाखोरी के खिलाफ में थे। तब फिर ,नशाखोरी कैसे, कब, क्यों और किसके द्वारा हमारे संस्कृति का अटूट हिस्सा बन गया। आप हमें बताइए नशाखोरी की पैठ हमारे समाज में कहां तक है। जन्म मे, शादी विवाह में, पर्व त्यौहार में, धार्मिक अनुष्ठानों में और दुःख में। इसकी पहुँच कहाँ नहीं है। सच मायने में अगर कहा जाय तो हमारा समाज नशाखोरी के जबड़े में है।
नशीली पेय को लेकर मिस परसेप्सनस क्यों है
हमारे आदिवासी समाज में नशीली पेय पदार्थ के रूप में हडिया और महुआ का दारू का प्रचालन है। सबसे बड़ी ताजुब की बात यह है की हड़िया को हमने कभी शराब माना ही नहीं। और इसको संस्कृति के साथ जोड़ दिया। हडिया अन्न के फर्मेंटेशन से बनता है। महुआ का दारू फूलों से डिस्टलेशन प्रक्रिया से बनता है। यह दोनों ही शराब है और दोनों का में कंटेंट अल्कोहल है। जिस पेय पदार्थ से नशा हो उसमें अल्कोहल है। अगर बात करें अल्कोहल सांद्रता की तो हडिया में दो से तीन पर्सेंट अल्कोहल है और महुआ में 15 से 20%।
हमारे समाज में बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो नशापन छोड़ने के नाम पर हडिया और महुआ का दारू नहीं पीते हैं लेकिन विदेशी शराब(ललका) मिलने से बड़े चाव से पीते हैं। यह सभी शराब है। सभी में मुख्य कंटेंट के रूप में अल्कोहल है जिसका अनुचित उपयोग हमारे लिए हानिकारक है।
प्रकृति का संरक्षण में ही हमारी अस्तित्व है।
जब आज हम सभी सरहुल पर्व मनाने के लिए एकत्रित हुए हैं। यह हम सभी को पता है कि यह प्रकृति का महा पर्व है। प्रकृति ही सभी जीव जंतुओं का आवास है। प्रकृति के साथ ही हमारा अस्तित्व जुड़ी हुई है। हमारी सांसे प्रकृति से चलती है। प्रकृति ही हमारा भरण पोषण करती है। जिस तरह से हम अपनी जरूरतों के लिए प्रकृति का विनाश कर रहे हैं,प्रकृति हमे कभी माफ़ नहीं करेगी। प्रकृति को बचा कर रखना ही हम आदिवासियों की सबसे बड़ी ईश्वर भक्ति होगी।
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