कुछ न करना भी एक तरह का करम है
लेख की भूमिका
एक दिन मैं रोज़ की तरह एक्सरसाइज़ कर रहा था और साथ में Kuku FM पर कुछ सुन भी रहा था। उसी दौरान एक लाइन मेरे कानों में पड़ी, जो मेरे मन में गहराई तक उतर गई। उस लाइन ने जैसे मुझे रोक कर सोचने पर मजबूर कर दिया। वह लाइन थी:
"कुछ न करना भी एक तरह का करम है।"
पहली बार सुनने में यह वाक्य बहुत साधारण लगा, लेकिन जब मैंने इस पर थोड़ी देर ध्यान दिया, तो इसकी गहराई मेरे भीतर उतरने लगी। क्या सच में कुछ न करना भी एक कर्म हो सकता है? क्या जब हम चुप रहते हैं, कुछ करने से बचते हैं, या कोई निर्णय नहीं लेते — तो वह भी किसी न किसी रूप में कर्म होता है?
यही सोच मेरे मन में कई सवालों को जन्म देने लगी। मैंने महसूस किया कि इस एक वाक्य के पीछे एक बहुत बड़ा अर्थ छिपा है, जिसे मैं समझना चाहता था।
इसलिए मैंने यह लेख लिखने का निर्णय लिया — ताकि मैं खुद भी इस विचार को गहराई से समझ सकूं और आपको भी बता सकूं कि कर्म केवल वह नहीं जो हम करते हैं, बल्कि वह भी है जो हम नहीं करते, सोचते हैं, या अनदेखा कर देते हैं।
कर्म का व्यापक अर्थ
हम अक्सर "कर्म" शब्द को केवल शारीरिक कार्यों से जोड़कर देखते हैं — जैसे कोई काम करना, किसी की मदद करना, कुछ बोलना या कुछ हासिल करना। लेकिन वास्तव में कर्म का अर्थ इससे कहीं ज्यादा गहरा और व्यापक होता है।
कर्म सिर्फ क्रिया नहीं है, बल्कि वह हर विचार, भावना, और निर्णय भी है, जो हम अपने मन और चेतना में लेते हैं।
अगर हम किसी की मदद कर सकते हैं लेकिन चुपचाप मुंह मोड़ लेते हैं — तो यह भी एक कर्म है।
अगर हम किसी अन्याय को देखकर भी कुछ नहीं कहते — तो वह भी एक कर्म है।
यहां तक कि सोचना, इच्छा करना, या चुनाव करना — ये सब भी कर्म के ही रूप हैं।
भगवत गीता में भी श्रीकृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि —
"कर्म करना, अकर्म और विकर्म — तीनों को समझना जरूरी है।"
यहां अकर्म का मतलब कुछ नहीं करना नही है , बल्कि यह वह कर्म जो बाहरी रूप से दिखता नहीं, लेकिन वह कर्म अंदर ही अन्दर चल रहा होता है।
इस तरह हम समझ सकते हैं कि कर्म का क्षेत्र केवल हमारे हाथ-पैरों से किए गए कार्यों तक सीमित नहीं है। हमारी चुप्पी, सोच,विचार ,हमारी भावनाएं और नीयत भी कर्म का ही हिस्सा हैं।
और इसलिए, "कुछ न करना भी एक कर्म है" — यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि एक चेतावनी है कि हमारी निष्क्रियता( कुछ नही करना ) भी हमारे जीवन को दिशा देती है और कर्म के परिणाम से बच नही सकते l
कुछ न करना भी कर्म क्यों है ?
जब हम कहते हैं कि "मैंने कुछ नहीं किया", तो अक्सर हम सोचते हैं कि हमने कोई कर्म नहीं किया। लेकिन वास्तव में, "कुछ न करना" भी एक तरह का "करना" है, क्योंकि वह भी एक निर्णय होता है।
चलिए हम इसको इस तरह से समझने की प्रयास करते हैं l
मान लीजिए आपके सामने कोई व्यक्ति मदद माँग रहा है, और आप उसकी मदद करने में सक्षम हैं, फिर भी आप चुपचाप वहाँ से चले जाते हैं — तो क्या आपने कुछ नहीं किया ?
नहीं, आपने मदद न करने का निर्णय लिया, और वही आपका कर्म बन गया।
इस प्रकार, निष्क्रियता भी एक प्रतिक्रिया होती है।
जब आप किसी अन्याय को देखकर भी चुप रहते हैं
जब आप सही वक्त पर बोलने या कदम उठाने से पीछे हट जाते हैं
जब आप आलस्य, भय या भ्रम के कारण कोई निर्णय नहीं लेते
तो वह सब कर्म के ही अलग-अलग रूप होते हैं।
दरअसल, कर्म केवल “क्या किया गया” नहीं होता, बल्कि “क्या नहीं किया गया जबकि किया जा सकता था” — यह भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है।
एक छोटा उदाहरण:
आप एक पौधे को ऱोज पानी देते हैं और अगर पानी देना भूल जाएं, तो आपने उसे तोड़ाफोड़ा नहीं, लेकिन आपकी निष्क्रियता (कुछ नही करना ) ने ही उसे मुरझा दिया। अगर आप पानी देना नही भूलते तो पौधा मुरझाता नही l
यह भी कर्म ही है — न करने का कर्म।
इसलिए यह समझना जरूरी है कि हर चुप्पी, हर देरी, हर निष्क्रियता — भी कर्म के दायरे में आती है। और उसका परिणाम भी उतना ही निश्चित होता है, जितना किसी सक्रिय कार्य का।
उदाहरण द्वारा विस्तार से समझते है :
मान लीजिए आप एक सुबह ऑफिस , स्कूल या काम के लिए जल्दी में हैं। रास्ते में एक बुजुर्ग व्यक्ति ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं। वह दर्द में कराह रहे हैं, उनके हाथ से सामान गिर चुका है। आपके पास उन्हें उठाने और मदद करने का समय है, लेकिन आपके मन में यह भी चल रहा है कि: अगर मैं रुका तो मेरी बस छूट जाएगी। दूसरे लोग भी तो हैं, कोई और मदद कर देगा। मैं देर से पहुँचा तो मेरी डाँट पड़ेगी। आप थोड़ी देर रुकते भी हैं, उन्हें देखते हैं, और फिर चुपचाप आगे बढ़ जाते हैं।
अब सोचिए
क्या आपने कुछ किया ? शायद आप कहेंगें , मैंने कुछ भी नहीं किया। लेकिन सच यह है कि आपने मदद न करने का निर्णय लिया और यही आपका कर्म बन गया।
यह कर्म क्यों माना गया ?
कर्म सिर्फ वो नहीं होता जो आप करते हैं, कर्म वो भी होता है जो आप कर सकते थे लेकिन नहीं किया।
यहाँ आपने किसी की मदद करने का मौका होते हुए भी जानबूझकर उसे टाल दिया। यह एक सचेत निर्णय था और हर निर्णय भी एक कर्म है।
इस नकारात्मक कर्म के तीन स्तरों पर परिणाम हो सकते हैं:
- आंतरिक परिणाम (मन और आत्मा पर प्रभाव):
जब आप आगे बढ़ते हैं, तब कुछ समय बाद आपके भीतर से आवाज़ आती है l काश मैंने थोड़ी देर रुककर उनकी मदद की होती। आपको पछतावा महसूस होता है।आप भले ही दिखावे में सामान्य रहें, लेकिन आपके अंदर एक हल्का-सा अपराधबोध बैठ जाता है, जो धीरे-धीरे आपके व्यवहार को प्रभावित करने लगता है। यह आत्मा पर बोझ बन जाता है, जो कभी-कभी नींद में, विचारों में या फिर किसी और मौके पर आपको परेशान कर सकता है।
- सामाजिक परिणाम (दूसरे लोग कैसे देखते हैं):
हो सकता है उस जगह पर और लोग भी मौजूद हों , जिन्होंने देखा कि आपने मदद नहीं की। इससे आपकी छवि खराब हो सकती है। आपके व्यवहार को लोग संवेदनहीन या स्वार्थी समझ सकते हैं।अगर यह बात आपके परिवार, बच्चे या साथी कर्मचारियों को पता चले, तो उनका आपके प्रति नजरिया भी बदल सकता है।
- आध्यात्मिक और कर्मफल परिणाम:
कई धार्मिक ग्रंथों और दर्शन के अनुसार- जो अवसर आपके सामने आता है, वह संयोग नहीं बल्कि ईश्वर द्वारा दिया गया कर्म करने का अवसर होता है।आपने एक पुण्य कर्म करने का अवसर खो दिया। आपने एक ऐसा कर्म किया जो न तो आपके लिए अच्छा था, और न ही उस व्यक्ति के लिए।ऐसे कर्मों का परिणाम आपके भविष्य में बाधाएँ, अपराध बोध, या अवसरों की कमी के रूप में सामने आ सकता है।
कुछ मान्यताओं में यह भी कहा गया है कि जो पीड़ा आप अनदेखी करते हैं, वही भविष्य में आपके पास किसी न किसी रूप में लौटती है।
मै मदद करना चाहता था लेकिन अपनी असामर्थ्यता के कारण नही कर पाया तो क्या यह भी कर्म है ?
जब हम किसी की मदद करना चाहते हैं लेकिन अपनी सामर्थ्य, स्थिति या संसाधनों की कमी के कारण नहीं कर पाते, तो यह हमारी नियत की शुद्धता को दर्शाता है। ऐसे में कर्म न कर पाना दोष नहीं माना जाता, क्योंकि इच्छा तो थी, पर सामर्थ्य नहीं। निष्क्रियता की ऐसी भावना सराहनीय मानी जाती है।
जब मदद का गलत फायदा उठाया जाए — कर्म की दृष्टि से ये क्या है ?
कर्म का अर्थ केवल कार्य करना नहीं है, बल्कि विवेकपूर्वक, समय और परिस्थिति को समझते हुए किया गया निर्णय भी कर्म कहलाता है।जब हम किसी की मदद करते हैं, तो वह एक सकारात्मक कर्म होता है। लेकिन जब कोई बार-बार हमारी दयालुता का दुरुपयोग करता है, और हम फिर भी बिना सोचे-समझे उसकी मदद करते रहते हैं, तो वह कर्म नकारात्मक फल भी दे सकता है।
ऐसी मदद क्या होती है?
जब कोई व्यक्ति बार-बार झूठ बोलकर आपसे सहानुभूति पाता है। जब कोई आपकी उदारता को कमजोरी समझने लगता है। जब आपकी मदद से वह व्यक्ति आलसी, निर्भर या स्वार्थी बन जाता है। ऐसे में आप सीधा नुकसान भले न करें, लेकिन आप उसके गलत कर्मों को पोषित कर रहे होते हैं। यह भी एक विकृत कर्म बन जाता हैl
कर्म के नियम में संतुलन आवश्यक है:
सही समय पर, सही व्यक्ति को, सही सीमा में दी गई सहायता ही सच्चा कर्म है।मदद वहीं करें जहाँ वह किसी को आत्मनिर्भर बनाए।अगर आपकी सहायता किसी को भटकने, झूठ बोलने या आरामतलब बनने का अवसर देती है, तो यह सकारात्मक कर्म नहीं, बल्कि बिना विवेक का कर्म है।
मदद एक कर्म है, लेकिन विवेक के बिना किया गया कर्म भी उल्टा फल दे सकता है। इसलिए मदद करते समय हृदय के साथ-साथ बुद्धि का भी उपयोग करें।
निष्कर्ष
कुछ न करना भी एक कर्म है — यह विचार हमें सिखाता है कि केवल कार्य करना ही नहीं, बल्कि कार्य न करने का निर्णय भी हमारे जीवन और चरित्र को गहराई से प्रभावित करता है।मदद करने की क्षमता होते हुए भी मौन रह जाना, अन्याय देखकर चुप रहना या ज़रूरी निर्णय से पीछे हटना — ये सब नकारात्मक कर्म हैं जिनके परिणाम जीवन में किसी न किसी रूप में लौटते हैं। इसलिए हर अवसर, हर क्षण एक कर्म का चुनाव है — और वही चुनाव हमारे भविष्य को आकार देता है।
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