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प्रकृति तब भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी

प्रकृति तब भी थी, जब हम मे से कोई नहीं थे। प्रकृति अभी भी हैं, जब हम सभी हैं। प्रकृति तब भी रहेगी, जब हम मे से कोई भी  नहीं होंगा। एक प्रकृति ही है जो हमेशा ही रहने वाली है। ब्रह्माण्ड में जब तक पृथ्वी अस्तित्व मे रहेगी, प्रकृति की अस्तित्व जुड़ी हुई रहेगी। प्रकृति सिर्फ़ और सिर्फ देना जानती है, लेना नहीं। बावजूद इसके, प्रकृति को सिर्फ़ हमने लूटा बहुत है।  संतुलन को हम बिगड़ रहे है। प्रकृति संवर्धन करने के ऊपर हमने कभी ध्यान दिया ही नहीं। हमारे समाज में एक बहुत ही अच्छी कसौटी काम करती है चाहे आप किसी भी परिवेश में हो। वह कसौटी है गिव एंड टेक(Give and take) अगर आपको समाज से कुछ लेना है तो पहले आपको कुछ देना पड़ेगा। अगर आपको सिर्फ लेना आता हो और देना नहीं आता, तो रिश्ते समाप्त होने में ज्यादा टाइम नहीं लगता। गिव एंड टेक की कसौटी हमारे और प्रकृति के बीच भी  same तरीके से काम करती है। प्रकृति से हमने तो सिर्फ ले ही रहें हैं, बदले में कुछ नहीं दिया। बदले का मतलब प्राकृतिक संवर्धन के ऊपर काम नहीं कर रहे हैं जिस लेवल से काम होनी चाहिए। 

विकास के नाम पर हम प्राकृतिक संसाधनों का बेइंतीहा दोहन कर रहे हैं।विकास करना भी  जरूरी है लेकिन किस कीमत पर।इनमें से ज्यादातर ऐसे संसाधन हैं जो दुबारा नहीं बनने वाले और ना ही मिलने वाले। हमे ग्रीन एनर्जी, रीसाइक्लिंग और इको सिस्टम पर ध्यान देना होगा।जियो और जीने दो की नीति अपनानी होगी जहाँ तक संभव हो। पेड़ कट रहे हैं,जंगल के जंगल साफ़ हो रहें। माना की जरूरत है। लेकिन जिस अनुपात में कटे, उसका भरपाई भी तो होना चाहिए। वृक्षारोपण की दर ,कटने की दर से ज्यादा भी हो लेकिन कितने पौधे हैं जो पेड़ बने। पौधे लग तो गए पर पेड़ बन नहीं पाए। 

प्रकृति के चार सबसे बड़े अंग हैं जो सीधे हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं। मिट्टी, पानी, हवा और पेड़ पौधे। 
जीवन का शुरुआत प्रकृति से ही होता है। प्रकृति से ही हम सभी जीवों का भरण - पोषण होता है। अंत में प्रकृति में ही विलीन हो जाते हैं। सच मायने में अगर बोला जाए तो हम सभी प्रकृति के ही तो अंश हैं। 

प्रकृति ही हमारे जीवन का आधार है। रहना, खाना, पानी और हवा प्रकृति से ही हमें मिल रही है। यह हमेशा ही रहने वाली है, शाश्वत हैं। प्रकृति  जैसा है, वैसे ही बचा कर रखना, हम सबकी, सबसे बड़ी परम कर्तव्य होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि कितने ही लोग हैं जो प्रकृति के ऊपर बात करते हैं। यह तो प्रत्येक इंडिविजुअल व्यक्ति की जिम्मेवारी होनी चाहिए। हम में से बहुत ही कम ऐसे लोग होंगे जो कभी प्रकृति संरक्षण के ऊपर कुछ भी काम किया हो। हमें तो जरा भी एहसास नहीं होता है कि हम प्रकृति को किस कदर  नुकसान पहुंचा रहे हैं। 

मिट्टी प्रकृति का सबसे महत्वपूर्ण अंग है । बाकी के जितने भी प्रकृति के अंग हैं सभी मिट्टी से ही जुड़े हुए हैं।  जनसंख्या बढ़ती ही जा रही है और उसका बोझ मिट्टी पर पड़ रहा है। रहने के लिए घर चाहिए। खाने के लिए अन्न चाहिए। खेती योग्य जमीन सीमित हो रही है। प्रति इकाई क्षेत्रफल पर ज्यादा से ज्यादा पैदावार चाहिए लगातार। पैदावार अच्छी और ज्यादा हो, इसके लिए  लगातार रसायनिक खादों और कीटनाशी का उपयोग कर रहे हैं। मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता समाप्त हो रही है। मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता बढ़ाने वाली सूक्ष्म जीव, जो कि मिट्टी में ही पाई जाती है, नष्ट हो रही है। अब स्थिति यह है कि बिना रासायनिक खादों के फसल हो ही नहीं सकती। 

इससे भी ज्यादा नुकसान मिट्टी को कारखानों से निकलने वाली शोधन रहित रसायन युक्त पानी से होती है। यह मिट्टी को पूरी तरह से उसर बना देती है। इसके अलावा शहरों एवं कस्बों से निकलने वाली टार जैसे दिखने वाली  बदबूदार काला पानी से होती है। इस पानी का जल जमाव जहां भी होता है यह मिट्टी के ऊपरी परत को पूरी तरह से ढक देती है । यह मिट्टी को दलदल बना देता है। यह मिट्टी बाद में फिर किसी काम की नहीं रह जाती।मिट्टी के बनने में सालों का समय लगता है। इस समय को हमारे द्वारा उपयोग की जाने वाली प्लास्टिक कचरा बढ़ा देता है। यह प्लास्टिक कचरा कभी नहीं सड़ती और मिट्टी की संगघ टन को बिगाड़ देती है। 

पानी जो कि प्रकृति में जीवन देने का काम करता है, इसकी स्वच्छता के बारे में कोई नहीं सोचता। हाउसहोल्ड और छोटी बड़ी सभी फैक्ट्रियां पानी को दूषित करती है। यह पानी इतनी दूषित हो जाती हैं कि जलीय जीव और जलीय पौधे तक मर जाते हैं। ऊपर से जितने भी सड़ने गलने वाली कचरा होते हैं उनको भी पानी में ही डाल देते हैं। हमने अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए प्रकृति के स्वास्थ्य को बिल्कुल ही बिगाड़ के रखा हुआ है। हम पानी को जितना उपयोग नहीं करते उससे कहीं ज्यादा पानी को दूषित करते हैं।जल ही जीवन कहा  तो जाता है लेकिन हमारे पास उपलब्ध ज्यातर पानी हमारे किसी काम का नहीं। रीसाइक्लिंग और फिल्ट्रेशन की कोई कार्य योजना नहीं है। 

घर से निकलने वाली कचरे के निपटारण का कोई कार्य योजना हमारे पास नहीं है। दिनों दिन कचरे का पहाड़ बड़ा होता जा रहा है। कचरा सेरिगेशन का कोई तरीका काम नहीं करता। विदेश में जिस तरह से कचरा का प्रबंध किया जाता है और उसका उपयोग सड़क बनाने में की जाती है हमारे यहां इस तकनीक पर तो कोई काम ही नहीं होता। हमारे यहां  कचरा का निपटारण उसके ऊपर आग जलाकर कर दी जाती है। न जाने कितने महीने वह जलती ही रहती है और धुवें से वह इलाका  टप जाता है। प्रकृति के स्वच्छ अबो हवा को हम दूषित करते रहे हैं। इसके लिए दोषी कौन है। दूषित तो प्रकृति हो रही है ना प्रकृति किसका है जो किसी को कोई दिक्कत हो। हमारा घर का थोड़ी है प्रकृति। प्रकृति को ठीक रखने का जिम्मेवारी सरकार का है या फिर प्रत्येक इंडिविजुअल का। 

फौज में साफ सफाई और एरिया मेंटेनेंस को लेकर एक बहुत ही अच्छी बात है। वह बात है, सप्ताह में एक दिन अपने लाइन एरिया, बैरक एरिया और रेजिडेंशियल एरिया में  साफ़ सफाई होती जरूर है। और एक सक्षम अधिकारी उसे साफ सफाई का रिपोर्ट जरूर लगता है। दोषी कार्मिक के ऊपर कुछ ना कुछ दंडात्मक कार्रवाई जरूर होती है। प्रकृति का मतलब हम कुछ और ही समझ लेते हैं। हम अपने चारों ओर से प्रकृति और प्राकृतिक चीजों से गिरे हुए हैं। अगर हम प्रत्येक लोग अपने ही घर , कार्यालय , दुकान और फैक्ट्री के चारों ओर साफ सफाई रखें और कचरे का सही निपटारण करें तो प्रकृति अपने आप साफ हो जाएगी। 

हमारी एक बहुत बड़ी गलत आदत है की बाहरी साफ सफाई की पूरी जिम्मेदारी सरकार के ऊपर छोड़ देते हैं। सरकार बिना आम आदमी के सहभागिता के कुछ भी नहीं कर सकती। बाहरी साफ सफाई को लेकर हम एक दूसरे का आसरा जोहाेते  हैं। हमारे घर के चारों ओर गंदगी पसरी हुई हो, नाली का पानी सड़क में जा रही हो, लेकिन हम इसी नर्क में रहने के लिए अपने आप को अभयस्थ कर लेते हैं मग़र सफाई मे कोई पहल नहीं करते। क्योंकि हमें अपने वातावरण और अपने परिवेश की कोई कदर ही नहीं है। 

हमारी सरकार ने साफ सफाई को लेकर, सफाई अभियान के नाम पर बहुत अच्छा मोहिम चलाया है। ताकि देश की जनता, अपने परिवेश की साफ सफाई को लेकर जागरूक हों । लेकिन हमने साफ सफाई के इस मोहिम को गलत समझा। यह मोहिम कैमरा तक ही सीमित रह गई। कैमरे में बहुत सफाई हुई और बहुत पेड़ लगाए गए। लेकिन परिणाम क्या मिला। हमें पर्यावरण के प्रति सच्चा प्रेम और लगाव होना चाहिए। सिर्फ दिखावा के लिए नहीं । असली सफाई तब मानी जायेगी ,जब  कैमरे की नजर आप पर ना हो और आप सफाई कर रहे हो। 

आज की भाग दौड़ वाली जिंदगी में मनोरंजन के लिए अनेक भौतिक साधन हमारे पास उपलब्ध है। इन साधनों का उपयोग कर, हम अपने मन की थकावट को दूर करने की कोशिश करते हैं। इन सब के बावजूद मन की थकावट दूर नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति में हमें अक्सर हरे पेड़ पौधों की हरियाली,   पशु पक्षियों की गूंजती किलकारियां, सुनसान छायादार सड़के, बादल ओढें पहाड़, बर्फ की सफेद चादर, कल कल करती नदियां, झरने, ताल, सागर हमें अपनी ओर खींचती हैं। जो शांति और सुकून की अनुभूति प्रकृति की गोद में हमें मिलती है वह अद्वितीय है। वह कहीं और नहीं मिलेगी। हमारी सारी मानसिक थकान इस प्राकृतिक माहौल में विलीन हो जाती है। हमारा मन मस्तिष्क पूरी तरह से फ्रेश और रिचार्ज हो जाता है। 
जब आप दुखी और निराश हो तो प्रकृति के शरण में चले जाओ। अकेले में प्रकृति के बीच में बैठो। जब आप वहां से लौटोगे तब आप वह नहीं होंगे जो आप पहले थे। आप अपने आप को पूरी तरह से बदला हुआ महसूस करोगे। मन में गजब की स्फूर्ति आ जाएगी। उस वजह को भूल जाओगे जिस वजह से आपको मानसिक थकान हुई थी। 
जिससे हमारी स्वास्थ्य सुधरती है ,उसका स्वास्थ्य को हम क्यों बिगड़ रहे हैं। 

दुनियां में आदिवासी समाज ही एक ऐसी समाज है जो हमेशा से ही जल जंगल और ज़मीन की लडाई लड़ते आ रहे हैं। क्योकि वो ये बखूबी जानते हैं कि प्रकृति क्या है और मानव के लिए इसकी importance क्या है। इस लडाई को अभी तक,कभी भी किसी और का साथ नहीं मिला।प्रकृति को बचाने के लिए धरती के हर कोने पर अकेला ही लड़ता रहा। इस लडाई के पीछे की वजह क्या है , का जवाब समय एक दिन हमे जरूर देगा। दुनिया को एक बार जरूर प्रकृति को आदिवासियों की नज़र से देखनी चाहिए। 

ऐसे पर्व त्योहार और कार्यक्रम जो प्रकृति संरक्षण की बात करता हों, जिसमे प्रकृति की महत्व की गुणगान हो। ऐसे पर्व त्योहार और कार्य क्रम को सरकार के बढ़ावा दिया जाना चाहिए। आदिवासियों के द्वारा मनाये जाने वाले ज्यादातर त्यौहार प्रकृति पर ही आधारित होती है। इन त्योहारों को बड़े धूमधाम से मनाया भी जाता है। 

हमें प्रकृति संरक्षण के ऊपर छोटे-छोटे स्पेशल कोर्स डेवलप करना चाहिए। इस कोर्स को करना सबके लिए अनिवार्य हो। नियमित प्राकृतिक संरक्षण के ऊपर कार्यशाला का आयोजन होते रहना चाहिए। हम अपने हाइजीन एंड सेनिटेशन के ऊपर ध्यान तो खूब देते हैं लेकिन प्रकृति के हाइजीन एंड सैनिटेशन के ऊपर हमारा ध्यान बिल्कुल भी नहीं है। हम अपने घर को साफ रखना तो जानते हैं लेकिन बाहर गंदगी फैलाते हैं।

हमारे द्वारा उपयोग की जाने वाली घरेलू कचरा प्रकृति के स्वास्थ्य को बिगड़ती है। एक ऐसी अथॉरिटी की जरूरत हैं, जो गंदगी फैलाने वालों के ऊपर सुपरविजन रखें। एक ऐसी व्यवस्था हो जो गंदगी फैलाने वाले के ऊपर जुर्माना लगा सके। जैसी की  ट्रैफिक पुलिस यातायात के नियमों को तोड़ने वालों के ऊपर चलन करता है। ऐसे नियम शक्ति से पालन हों। 

अगर हमें प्रकृति को स्वच्छ रखना है तो ऊर्जा के जो मुख्य स्रोत (कोयला और पेट्रोलियम )हैं उस पर हमारी निर्भरता कम हो। इनके इस्तेमाल से हमें ऊर्जा ज्यादा तो मिलती है लेकिन बहुत अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड गैस भी उत्पन्न होती है जो कि प्रकृति के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। इसे हमारी पृथ्वी गर्म हो रही है। मौसम चक्र में इसका असर दिख रहा है। ऊर्जा की जरूरत को पूरा करने के लिए ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों के ऊपर निर्भरता को धीरे-धीरे बढ़ानी चाहिए। ग्रीन एनर्जी को बढ़ावा देना चाहिए। हमें ऐसी तकनीक को विकसित करना चाहिए जिससे ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों से ही हमें अधिक से अधिक ऊर्जा मिल सके। सरकार को चाहिए कि जो लोग ग्रीन एनर्जी का ज्यादा उपयोग करते हैं उसको ट्रैक्स में छूट दिया जाए या फिर उन्हें सम्मानित किया जाए। 
प्रकृति हमें अपने ओर खींचती है। 
क्योंकि हम प्राकृतिक तत्वों के साथ गहरा संबंध रखते हैं। और हमारे जीवन के लिए प्राकृतिक माहौल अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यहां कुछ कारण हैं:
आराम और शांति: 
प्रकृति का साथ हमें शांति और सकारात्मकता की अनुभूति कराता है। जंगलों, पहाड़ों, नदियों, और समुद्रों के माध्यम से हम आराम और चैन का अनुभव करते हैं।
स्वास्थ्य लाभ: 
प्रकृति में समय बिताने से हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को लाभ होता है। सूर्य की रोशनी, हवा का शुद्धिकरण, और प्राकृतिक वातावरण में गतिविधियों का हिस्सा बनने से हमें उत्तेजना और स्वस्थ रहने का अनुभव होता है।
संतुलन और उत्साह:
 प्रकृति हमें संतुलन और सहयोग की अनुभूति कराती है। विभिन्न प्राकृतिक दृश्य और वातावरण हमें उत्साहित करते हैं और हमारे जीवन में संतुलन को स्थापित करने में मदद करते हैं।
संवेदनशीलता और सम्बंध: 
प्रकृति हमें संवेदनशीलता की अनुभूति कराती है और हमें हमारे पर्यावरण के साथ संबंध बनाने में मदद करती है। इससे हम प्राकृतिक संबंधों को महसूस करते हैं और अपने पर्यावरण के प्रति सावधान और सहयोगी बनते हैं।

सरकारी संस्थानों, गैर सरकारी संस्थानों, शैक्षिक संस्थानों और धार्मिक संगठनों के द्वारा समय- समय पर वृक्षारोपण करते रहती है। लेकिन उचित देखरेख के अभाव में पौधे बडे नहीं हो पाते। वृक्षारोपण करना जितना ज़रूरी है, उससे भी कहीं ज्यादा ज़रूरी उनका देख रेख करना है। 



हमें एक ऐसी नीति पर काम करना होगा, जिस नीति के तहत पेड़ भी कटे, खनन  भी हो, उद्योग धंधे भी चले,मशीनें भी चले, विकास का कार्य भी हों, लेकिन इस बात पर पूरी ध्यान रखा जाए कि प्राकृतिक संतुलन के ऊपर कोई आंच ना आ पाए। इको सिस्टम हमें विकसित करनी ही पड़ेगी। विकास हमें करनी है लेकिन प्रकृति को दांव में लगाकर नहीं। 



 





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