अगर दुनिया को बचाना है तो हमें आदिवासियों की तरह प्रकृति प्रेमी होना पड़ेगा। हमें प्रकृति के साथ सह अस्तित्व की जीवन शैली अपनानी होगी। आदिवासियों का प्रकृति प्रेम जीवन के प्रारंभ से लेकर जीवनपर्यंत तक रहता है। सच मायने में अगर देखा जाए तो एक सच्चा आदिवासी एक प्रकृति विज्ञानी से कम नहीं होता। उन्हें अपने वातावरण के सम्पूर्ण पेड़ पौधों की उपयोगिता और उनकी महत्व के बारे में जानकारी जन्म से ही होती है। क्योंकि उनके पूर्वजों के द्वारा ये जानकारी उन्हें स्वता ही मिल जाती है। पेड़-पौधे का कौन सा भाग खाया जाता है ? कौन सा भाग औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है कब खाया जाता है कैसे खाया जाता है उन्हें सब कुछ पता होता है। ऐसे ऐसे चीजों के बारे में उन्हें पता होता है जिनके बारे में लगभग पूरे दुनिया के लोगों को पता नहीं होता है। आदिवासी अपने आप में एक इंस्टीट्यूट के समान है।अपने आप में ही वे ऑटोनॉमस बॉडी है। हमें बहुत नजदीक से प्रकृति से उनके जुड़ाव को सीखने की जरूरत है।मौसमों के बदलाव का असर उनके शरीर पर बहुत कम होता है।इसको पूरा दुनिया मानती है।आदिवासी हार्ड इम्युनिटी वाले होते है। उन्हें कोई गंभीर बीमारियों की समस्या भी बहुत ही कम होती है। आदिवासी बहुत बड़े प्रकृति पूजक होते हैं। उनके सारे के सारे पर्व त्यौहार प्रकृति से ही जुडी हुई होती हैं । हमेशा से ही प्रकृति को बचाने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं।प्रकृति को कभी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं बल्कि उनका संरक्षण और संवर्धन करते हैं।क्योंकि उन्हें बखूबी पता है कि प्रकृति है तो हम हैं। प्रकृति के बिना धरती पर मनुष्य जाति का अस्तित्व ही नहीं है।
आदिवासी गाँवों के नाम होते बहुत ख़ास है।
आदिवासियों के जीवन में प्रकृति से जुड़वों की घनिष्ठता इतनी प्रबल है कि उनके गाँवों के नामों में भी इसका असर दिखता है। पेड़ पौधों से इनका संबंध बहुत गहरा है। और हो भी क्यों न। क्योकिं प्रकृति हमें जीवन देती है। इसी लिए वे प्रकृति का संरक्षण भी करते है। अक्सर देखा ये जाता है कि किसी भी जगह ,गाँव, कस्बा या शहर का नाम हमेशा किसी व्यक्ति विशेष, लैंड मार्क , ऐतिहासिक या धार्मिक महत्व के आधार पर रखा हुआ होता है। लेकिन आपको यह जान कर बड़ा अचंभा होगा कि अक्सर उनके गाँवों का नाम पेड़ों के नाम पर होता है। अगर किसी गाँव में पीपल का पेड़ ज्यादा होगा तो उस गाँव का नाम पीपल/पिपर टोली होगा। बांस ज्यादा होने पर बांस टोली होगा। इसी तरह से बर (बरगद) टोली, जामुन टोली, आम्बा(आम) टोली, करंज टोली, तेतर टोली(इमली),सेंबर टोली(सेमल) आदि। और ना जाने कितने ही ऐसे गाँवों के नाम होंगे जो कि पेड़ों के नाम पर रखा हुआ है। और खास बात यह है कि जिस गांव का नाम जिस पेड़ के नाम से पड़ा हुआ होता है, उस गांव के लोग उनका यह परम कर्तव्य होता है कि उस प्रजाति के पेड़- पौधों का संरक्षण करें । वे उस विशेष प्रजाति के पेड़ का संरक्षण भी करते हैं। इस तरह का परंपरा शायद ही कहीं देखने सुनने को मिलती है। हमें ऐसी परंपरा को बनाये रखने और फैलाने की जरूरत है ताकि प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन हो सके।
आदिवासियों के सरनेम होते बड़े ख़ास
इनमें से एक तरीका है, अपने नाम के साथ पेड़ पौधों, पक्षियों, जानवरों, सरीसृपों, जालीय जीव और धातुओं के नामों को जोड़ना। जैसे- टोप्पो, खलखो, मिंज, लकड़ा, किसपोट्टा,धान, आदि। इसी प्रकार से और भी कई एक सरनेम हैं जिसका संबंध जीव जंतुओं या पेड़ पौधों से हैं । प्राकृतिक सरनेम रखने के पीछे आदिवासियों का main moto प्रकृति संरक्षण और एको सिस्टम को कायम रहना है । इसको हम इस तरह से समझते है। पक्षी की एक विशेष प्रजाति का नाम टोप्पो होता है। टोप्पो सरनेम वाला व्यक्ति उस पक्षी विशेष का संरक्षण करेगा। उसको कभी भी क्षति नही करेगा।अगर कोई व्यक्ति क्षति पहुँचाने की कोशिश करता है तो उसको रोकेगा। उस जीव विशेष का भक्षण जीवन में वह कभी नही करेगा। एको सिस्टम में महत्व रखने वाले लगभग सभी जीव जंतुओं के नाम से उनके सरनेम हैं। दर्जनों सरनेम का मतलब, दर्जनों जीव जंतुओं और वनस्पतियों का संरक्षण और संवर्धन । प्रकृति को बचाए रखने और एको सिस्टम को कायम रखने का यह तरीका बहुत ही प्रभावशाली है।
आदिवासी superfood
आदिवासियों के खानपान में सम्मिलित खाद्य पदार्थ अन्यों से बिलकुल ही भिन्न हैं । दुनिया का ध्यान कभी इनके फूडिंग हैबिट्स (Fooding habits ) पर गया ही नहीं । इनके superfood की जानकारी इन्टरनेट तक में भी उपलब्ध नही है। यह अभी तक commercialized हुआ नही हैं । लोगों को इनके बारे में जानकारी नही होने के कारण availability सिर्फ limited क्षेत्रों में ही हैं जहाँ ये रहते हैं । सभी फूड्स इम्युनिटी बूस्टिंग (immunity boosting) हैं। यही वजह है कि इनको use करने वाले लोग बीमार बहुत कम पड़ते हैं और यदि बीमार पड़ भी गये तो बहुत जल्द रिकवर हो जाते हैं। इनके सभी superfood पूर्ण रूप वनस्पतिक हैं । उनमे से कुछ एक की जानकारी निम्न हैं।
जैसे फुटकल साग ,कोयनर साग ,टूम्पा साग ,कटाई साग ,तीसरी साग ,धेपा साग ,सनई साग , चिमटी साग ,बेंग साग। लेकिन आधुनिकता की असर इसमें बहुत ज्यादा पड़ा है। उन सब चीजों का खानपान में चलन कम होता जा रहा है ।कुछ चीजों का वर्णन करने जा रहा हूँ । हमें इनको बचाकर रखने की जरुरत है। फुटकल साग झारखंड में निवास करने वाले लगभग सभी आदिवासियों को इसके बारे में जानकारी है। इन्हें बनाने की कई एक विधियां है। जिन्होंने भी इसको खाया है वह इन्हें कभी भूल नहीं सकता। यह खटाई के लिए जानी जाती है। इनमें कई एक औषधीय गुण पाए जाते हैं। इनका आचार भी बनाया जाता है।चटनी बहुत लाजवाब होता है। दुनिया इसकी स्वाद को अभी तक चखा ही नहीं होगा। यह किसी सुपर फूड से कम नहीं है। एक बार आप सभी इसका स्वाद जरूर लें।
सादगी के मूरत
सादगी और ईमानदारी आदिवासियों की पर्याय होती है। बेईमानी धोखाधड़ी और छल कपट इन से कोसों दूर है। आदिवासी विश्वास के पर्याय हैं। बहुसंख्यक आदिवासी सादा जीवन जीते हैं। ये बहुत शांतिप्रिय और अपने एरिया में रहना पसंद करते हैं। उनकी रहन-सहन मान्यताएं और खानपान और से बिल्कुल भिन्न है। यह प्रकृति के बहुत बड़े उपासक होते हैं। अपने आप को प्रकृति पूजक कहते हैं। और हो भी क्यों ना क्योंकि इनकी सारी धार्मिक मान्यता है प्रकृति से जुड़ी हुई है। यह अपने पुरखों से प्राप्त ज्ञान का अनुसरण करते हैं। पुरखों से प्राप्त सारा ज्ञान इनके गीतों में समाहित है। इनकी इतिहास गीतों में ही लिखी है। हर मौसम के लिए अलग गीत और नृत्य है। गीत संगीत और नृत्य इनके जहन में रचा बसा है।
दहेज़ प्रथा
आदिवासी समाज की सबसे अच्छी बात दहेज प्रथा का प्रचलन में नहीं होना है। दहेज प्रताड़ना की घटना कभी सुनने को नहीं मिलती। दहेज के लिए कोई भी बेटियाँ सताई या मारी नहीं जाती।बेटियों को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। बेटियां कभी बोझ नहीं मानी जाती। बेटियों के विवाह को लेकर कभी कोई समस्या नहीं होती। आदिवासी समाज में कभी कन्या भ्रूण की घटना देखने सुनने को नहीं मिलती।
आदिवासी महिला
आदिवासी अर्थव्यवस्था में महिलाओं का भागीदारी बराबरी का होता है।परिवार चलने में घर की महिलाओं की अहम भागीदारी होती है। हर काम में महिलाएं हाथ बटाती हैं।आदिवासी महिला सशक्त और मजबूत होती हैं। धार्मिक क्रियाकालापों में महिलाएं एक्टिवली भाग लेती हैं।
ज्ञान का केंद्र
धर्मकुड़िया आदिवासियों का सबसे पवित्र स्थलों में से एक माना जाता है। यह आदिवासियों की बहुउद्देशीय शैक्षणिक संस्थान है। यहां पर हर विधा की जानकारी दी जाती हैं। चाहे वह धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो, कानून व्यवस्था की हो, आर्ट ऑफ लिविंग हो या समय के मांग के हिसाब से कोई जरूरी चीज ही क्यों ना हो, की जानकारी दी जाती है। सप्ताह में एक दिन यहां पर धार्मिक सभाएं आयोजित की जाती है। उस दिन धर्म की बातें कही, सुनाई और बताई जाती है। गांव का शासन व्यवस्था किस तरह से हो इसके बारे में पहले से मौजूद नियम की जानकारी दी जाती है या तो फिर जरूरत पड़े तो नया नियम बनाए जाते हैं । जिसे सबको मानना होता है। जब इनका विशेष त्यौहार आने वाला होता है, तो उस त्यौहार की तैयारी के लिए, उस त्यौहार में उपयोग होने वाले गीतों का रिहर्सल होता है । नृत्य का रिहर्सल होता है।नई generation अपनी धार्मिक परंपरा की जानकारी हासिल करती है।
विवादों का निपटारा भी धूमकुरिया में ही होता है। बच्चों को शिक्षित करने के लिए रात्रि पाठशाला चलाई जाती हैं। यह आदिवासियों के लिए ज्ञान का केंद्र होता है।
चुनाव प्रक्रिया
आदिवासी समाज में चुनाव की प्रक्रिया सबसे अलग है। समाज में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित पद पाहान का होता है। बाकी सब उनके सहयोगी होते हैं। इस चुनाव प्रक्रिया को लेकर कभी विवाद नहीं होता। पद को चुनने की उनकी पारंपरिक विधि है। इसमें किसी एक व्यक्ति को चुनकर उनके आंखों में काली पट्टी बांधी जाती है। धार्मिक अनुष्ठान के बाद उस व्यक्ति को गांव के बीच में लाकर छोड़ दिया जाता है। आंखों में पट्टी बंधा व्यक्ति जिस किसी के घर में जाकर घुसता है, उसी घर के व्यक्ति को तीन वर्ष के पाहान के रूप में चुन लिया जाता है। गांव के सभी बड़े काम उनके आदेश से होंगे।
आदिवासी विद्रोह
भारत के प्रसंग में यदि बात करें, तो 1857 के सिपाही विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई माना जाता है। लेकिन 1857 के पहले भी अंग्रेजों के विरुद्ध आदिवासियों द्वारा कई लड़ाइयां लड़ी गई। पराधीनता आदिवासियों को कभी भी मंजूर नहीं था। आदिवासी कभी अंग्रेजों के गुलाम नहीं रहे । जल जंगल जमीन भाषा संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए हमेशा अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते रहे । तिलका मांझी के नेतृत्व में 1785 की तिलकामांझी विद्रोह। वीर बुधु भगत के नेतृत्व में 1832 की लार्का विद्रोह।तिरोत गाओ की खासी विद्रोह 1833। तेलंगा खरिया की नेतृत्व में 1850 की तेलंगाना खरिया विद्रोह। सिद्धू और कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में 1855 की संथाल विद्रोह। निलंबार और पीतांबर का विद्रोह 1857। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इनको वह जगह नहीं मिल पाई जो कि मिलनी चाहिए थी ।
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- अंधविश्वास
- सुविधाएं कैसे काम करती है।
- अपने बच्चों के लिए रोल मॉडल बने ।
- सामाजिक पिछड़ेपन के कारण।
- एक और एक कितने होते हैं ।
- तनाव की प्रकृति को कैसे समझें।
- गुड टच और बैड टच क्या है।
- अभी नहीं तो फिर कभी नहीं ।
- समाज से परे रहना नामुमकिन।
- अच्छे कामों को आसान और बुरे कामों को मुश्किल बनाएं। सामाजिक नशाखोरी।
- मेले के बाद का मेला।
- छोटे बदलाव का जादू।
- सफलता से दो कदम दूर।
- ऐसे होती है समस्याओं का मल्टीप्लिकेशन।
- धीरे चले पर पिछड़े नहीं।
- स्वयं को जीतना दुनिया जीतने के बराबर।
- लक्ष्य प्राप्ति के प्रोसेस को याद रखें लक्ष्य को नहीं।
- बड़े बदलाव की शुरुआत छोटे बदलाव से होती है।
- सहयोग के महत्व को समझें ।
- समस्या प्रोग्रामिंग में होती है प्रिंटआउट में नहीं।
- जैसा जड़ वैसा फल।
- समस्याओं के मूल कारण को खोजना ही समस्या का हल है।
- अपनी क्षमता को हम ही नहीं पहचान पाते।
- आंखें खुले रखने की जरूरत।
- सामाजिक नशाखोरी-I
- सामाजिक नशाखोरी-II
- सामाजिक नशाखोरी-III
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