05 मई 2024

प्रकृति तब भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी

प्रकृति तब भी थी, जब हम मे से कोई नहीं थे। प्रकृति अभी भी हैं, जब हम सभी हैं। प्रकृति तब भी रहेगी, जब हम मे से कोई भी  नहीं होंगा। एक प्रकृति ही है जो हमेशा ही रहने वाली है। ब्रह्माण्ड में जब तक पृथ्वी अस्तित्व मे रहेगी, प्रकृति की अस्तित्व जुड़ी हुई रहेगी। प्रकृति सिर्फ़ और सिर्फ देना जानती है, लेना नहीं। बावजूद इसके, प्रकृति को सिर्फ़ हमने लूटा बहुत है।  संतुलन को हम बिगड़ रहे है। प्रकृति संवर्धन करने के ऊपर हमने कभी ध्यान दिया ही नहीं। हमारे समाज में एक बहुत ही अच्छी कसौटी काम करती है चाहे आप किसी भी परिवेश में हो। वह कसौटी है गिव एंड टेक(Give and take) अगर आपको समाज से कुछ लेना है तो पहले आपको कुछ देना पड़ेगा। अगर आपको सिर्फ लेना आता हो और देना नहीं आता, तो रिश्ते समाप्त होने में ज्यादा टाइम नहीं लगता। गिव एंड टेक की कसौटी हमारे और प्रकृति के बीच भी  same तरीके से काम करती है। प्रकृति से हमने तो सिर्फ ले ही रहें हैं, बदले में कुछ नहीं दिया। बदले का मतलब प्राकृतिक संवर्धन के ऊपर काम नहीं कर रहे हैं जिस लेवल से काम होनी चाहिए। 

विकास के नाम पर हम प्राकृतिक संसाधनों का बेइंतीहा दोहन कर रहे हैं।विकास करना भी  जरूरी है लेकिन किस कीमत पर।इनमें से ज्यादातर ऐसे संसाधन हैं जो दुबारा नहीं बनने वाले और ना ही मिलने वाले। हमे ग्रीन एनर्जी, रीसाइक्लिंग और इको सिस्टम पर ध्यान देना होगा।जियो और जीने दो की नीति अपनानी होगी जहाँ तक संभव हो। पेड़ कट रहे हैं,जंगल के जंगल साफ़ हो रहें। माना की जरूरत है। लेकिन जिस अनुपात में कटे, उसका भरपाई भी तो होना चाहिए। वृक्षारोपण की दर ,कटने की दर से ज्यादा भी हो लेकिन कितने पौधे हैं जो पेड़ बने। पौधे लग तो गए पर पेड़ बन नहीं पाए। 

प्रकृति के चार सबसे बड़े अंग हैं जो सीधे हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं। मिट्टी, पानी, हवा और पेड़ पौधे। 
जीवन का शुरुआत प्रकृति से ही होता है। प्रकृति से ही हम सभी जीवों का भरण - पोषण होता है। अंत में प्रकृति में ही विलीन हो जाते हैं। सच मायने में अगर बोला जाए तो हम सभी प्रकृति के ही तो अंश हैं। 

प्रकृति ही हमारे जीवन का आधार है। रहना, खाना, पानी और हवा प्रकृति से ही हमें मिल रही है। यह हमेशा ही रहने वाली है, शाश्वत हैं। प्रकृति  जैसा है, वैसे ही बचा कर रखना, हम सबकी, सबसे बड़ी परम कर्तव्य होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि कितने ही लोग हैं जो प्रकृति के ऊपर बात करते हैं। यह तो प्रत्येक इंडिविजुअल व्यक्ति की जिम्मेवारी होनी चाहिए। हम में से बहुत ही कम ऐसे लोग होंगे जो कभी प्रकृति संरक्षण के ऊपर कुछ भी काम किया हो। हमें तो जरा भी एहसास नहीं होता है कि हम प्रकृति को किस कदर  नुकसान पहुंचा रहे हैं। 

मिट्टी प्रकृति का सबसे महत्वपूर्ण अंग है । बाकी के जितने भी प्रकृति के अंग हैं सभी मिट्टी से ही जुड़े हुए हैं।  जनसंख्या बढ़ती ही जा रही है और उसका बोझ मिट्टी पर पड़ रहा है। रहने के लिए घर चाहिए। खाने के लिए अन्न चाहिए। खेती योग्य जमीन सीमित हो रही है। प्रति इकाई क्षेत्रफल पर ज्यादा से ज्यादा पैदावार चाहिए लगातार। पैदावार अच्छी और ज्यादा हो, इसके लिए  लगातार रसायनिक खादों और कीटनाशी का उपयोग कर रहे हैं। मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता समाप्त हो रही है। मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता बढ़ाने वाली सूक्ष्म जीव, जो कि मिट्टी में ही पाई जाती है, नष्ट हो रही है। अब स्थिति यह है कि बिना रासायनिक खादों के फसल हो ही नहीं सकती। 

इससे भी ज्यादा नुकसान मिट्टी को कारखानों से निकलने वाली शोधन रहित रसायन युक्त पानी से होती है। यह मिट्टी को पूरी तरह से उसर बना देती है। इसके अलावा शहरों एवं कस्बों से निकलने वाली टार जैसे दिखने वाली  बदबूदार काला पानी से होती है। इस पानी का जल जमाव जहां भी होता है यह मिट्टी के ऊपरी परत को पूरी तरह से ढक देती है । यह मिट्टी को दलदल बना देता है। यह मिट्टी बाद में फिर किसी काम की नहीं रह जाती।मिट्टी के बनने में सालों का समय लगता है। इस समय को हमारे द्वारा उपयोग की जाने वाली प्लास्टिक कचरा बढ़ा देता है। यह प्लास्टिक कचरा कभी नहीं सड़ती और मिट्टी की संगघ टन को बिगाड़ देती है। 

पानी जो कि प्रकृति में जीवन देने का काम करता है, इसकी स्वच्छता के बारे में कोई नहीं सोचता। हाउसहोल्ड और छोटी बड़ी सभी फैक्ट्रियां पानी को दूषित करती है। यह पानी इतनी दूषित हो जाती हैं कि जलीय जीव और जलीय पौधे तक मर जाते हैं। ऊपर से जितने भी सड़ने गलने वाली कचरा होते हैं उनको भी पानी में ही डाल देते हैं। हमने अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए प्रकृति के स्वास्थ्य को बिल्कुल ही बिगाड़ के रखा हुआ है। हम पानी को जितना उपयोग नहीं करते उससे कहीं ज्यादा पानी को दूषित करते हैं।जल ही जीवन कहा  तो जाता है लेकिन हमारे पास उपलब्ध ज्यातर पानी हमारे किसी काम का नहीं। रीसाइक्लिंग और फिल्ट्रेशन की कोई कार्य योजना नहीं है। 

घर से निकलने वाली कचरे के निपटारण का कोई कार्य योजना हमारे पास नहीं है। दिनों दिन कचरे का पहाड़ बड़ा होता जा रहा है। कचरा सेरिगेशन का कोई तरीका काम नहीं करता। विदेश में जिस तरह से कचरा का प्रबंध किया जाता है और उसका उपयोग सड़क बनाने में की जाती है हमारे यहां इस तकनीक पर तो कोई काम ही नहीं होता। हमारे यहां  कचरा का निपटारण उसके ऊपर आग जलाकर कर दी जाती है। न जाने कितने महीने वह जलती ही रहती है और धुवें से वह इलाका  टप जाता है। प्रकृति के स्वच्छ अबो हवा को हम दूषित करते रहे हैं। इसके लिए दोषी कौन है। दूषित तो प्रकृति हो रही है ना प्रकृति किसका है जो किसी को कोई दिक्कत हो। हमारा घर का थोड़ी है प्रकृति। प्रकृति को ठीक रखने का जिम्मेवारी सरकार का है या फिर प्रत्येक इंडिविजुअल का। 

फौज में साफ सफाई और एरिया मेंटेनेंस को लेकर एक बहुत ही अच्छी बात है। वह बात है, सप्ताह में एक दिन अपने लाइन एरिया, बैरक एरिया और रेजिडेंशियल एरिया में  साफ़ सफाई होती जरूर है। और एक सक्षम अधिकारी उसे साफ सफाई का रिपोर्ट जरूर लगता है। दोषी कार्मिक के ऊपर कुछ ना कुछ दंडात्मक कार्रवाई जरूर होती है। प्रकृति का मतलब हम कुछ और ही समझ लेते हैं। हम अपने चारों ओर से प्रकृति और प्राकृतिक चीजों से गिरे हुए हैं। अगर हम प्रत्येक लोग अपने ही घर , कार्यालय , दुकान और फैक्ट्री के चारों ओर साफ सफाई रखें और कचरे का सही निपटारण करें तो प्रकृति अपने आप साफ हो जाएगी। 

हमारी एक बहुत बड़ी गलत आदत है की बाहरी साफ सफाई की पूरी जिम्मेदारी सरकार के ऊपर छोड़ देते हैं। सरकार बिना आम आदमी के सहभागिता के कुछ भी नहीं कर सकती। बाहरी साफ सफाई को लेकर हम एक दूसरे का आसरा जोहाेते  हैं। हमारे घर के चारों ओर गंदगी पसरी हुई हो, नाली का पानी सड़क में जा रही हो, लेकिन हम इसी नर्क में रहने के लिए अपने आप को अभयस्थ कर लेते हैं मग़र सफाई मे कोई पहल नहीं करते। क्योंकि हमें अपने वातावरण और अपने परिवेश की कोई कदर ही नहीं है। 

हमारी सरकार ने साफ सफाई को लेकर, सफाई अभियान के नाम पर बहुत अच्छा मोहिम चलाया है। ताकि देश की जनता, अपने परिवेश की साफ सफाई को लेकर जागरूक हों । लेकिन हमने साफ सफाई के इस मोहिम को गलत समझा। यह मोहिम कैमरा तक ही सीमित रह गई। कैमरे में बहुत सफाई हुई और बहुत पेड़ लगाए गए। लेकिन परिणाम क्या मिला। हमें पर्यावरण के प्रति सच्चा प्रेम और लगाव होना चाहिए। सिर्फ दिखावा के लिए नहीं । असली सफाई तब मानी जायेगी ,जब  कैमरे की नजर आप पर ना हो और आप सफाई कर रहे हो। 

आज की भाग दौड़ वाली जिंदगी में मनोरंजन के लिए अनेक भौतिक साधन हमारे पास उपलब्ध है। इन साधनों का उपयोग कर, हम अपने मन की थकावट को दूर करने की कोशिश करते हैं। इन सब के बावजूद मन की थकावट दूर नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति में हमें अक्सर हरे पेड़ पौधों की हरियाली,   पशु पक्षियों की गूंजती किलकारियां, सुनसान छायादार सड़के, बादल ओढें पहाड़, बर्फ की सफेद चादर, कल कल करती नदियां, झरने, ताल, सागर हमें अपनी ओर खींचती हैं। जो शांति और सुकून की अनुभूति प्रकृति की गोद में हमें मिलती है वह अद्वितीय है। वह कहीं और नहीं मिलेगी। हमारी सारी मानसिक थकान इस प्राकृतिक माहौल में विलीन हो जाती है। हमारा मन मस्तिष्क पूरी तरह से फ्रेश और रिचार्ज हो जाता है। 
जब आप दुखी और निराश हो तो प्रकृति के शरण में चले जाओ। अकेले में प्रकृति के बीच में बैठो। जब आप वहां से लौटोगे तब आप वह नहीं होंगे जो आप पहले थे। आप अपने आप को पूरी तरह से बदला हुआ महसूस करोगे। मन में गजब की स्फूर्ति आ जाएगी। उस वजह को भूल जाओगे जिस वजह से आपको मानसिक थकान हुई थी। 
जिससे हमारी स्वास्थ्य सुधरती है ,उसका स्वास्थ्य को हम क्यों बिगड़ रहे हैं। 

दुनियां में आदिवासी समाज ही एक ऐसी समाज है जो हमेशा से ही जल जंगल और ज़मीन की लडाई लड़ते आ रहे हैं। क्योकि वो ये बखूबी जानते हैं कि प्रकृति क्या है और मानव के लिए इसकी importance क्या है। इस लडाई को अभी तक,कभी भी किसी और का साथ नहीं मिला।प्रकृति को बचाने के लिए धरती के हर कोने पर अकेला ही लड़ता रहा। इस लडाई के पीछे की वजह क्या है , का जवाब समय एक दिन हमे जरूर देगा। दुनिया को एक बार जरूर प्रकृति को आदिवासियों की नज़र से देखनी चाहिए। 

ऐसे पर्व त्योहार और कार्यक्रम जो प्रकृति संरक्षण की बात करता हों, जिसमे प्रकृति की महत्व की गुणगान हो। ऐसे पर्व त्योहार और कार्य क्रम को सरकार के बढ़ावा दिया जाना चाहिए। आदिवासियों के द्वारा मनाये जाने वाले ज्यादातर त्यौहार प्रकृति पर ही आधारित होती है। इन त्योहारों को बड़े धूमधाम से मनाया भी जाता है। 

हमें प्रकृति संरक्षण के ऊपर छोटे-छोटे स्पेशल कोर्स डेवलप करना चाहिए। इस कोर्स को करना सबके लिए अनिवार्य हो। नियमित प्राकृतिक संरक्षण के ऊपर कार्यशाला का आयोजन होते रहना चाहिए। हम अपने हाइजीन एंड सेनिटेशन के ऊपर ध्यान तो खूब देते हैं लेकिन प्रकृति के हाइजीन एंड सैनिटेशन के ऊपर हमारा ध्यान बिल्कुल भी नहीं है। हम अपने घर को साफ रखना तो जानते हैं लेकिन बाहर गंदगी फैलाते हैं।

हमारे द्वारा उपयोग की जाने वाली घरेलू कचरा प्रकृति के स्वास्थ्य को बिगड़ती है। एक ऐसी अथॉरिटी की जरूरत हैं, जो गंदगी फैलाने वालों के ऊपर सुपरविजन रखें। एक ऐसी व्यवस्था हो जो गंदगी फैलाने वाले के ऊपर जुर्माना लगा सके। जैसी की  ट्रैफिक पुलिस यातायात के नियमों को तोड़ने वालों के ऊपर चलन करता है। ऐसे नियम शक्ति से पालन हों। 

अगर हमें प्रकृति को स्वच्छ रखना है तो ऊर्जा के जो मुख्य स्रोत (कोयला और पेट्रोलियम )हैं उस पर हमारी निर्भरता कम हो। इनके इस्तेमाल से हमें ऊर्जा ज्यादा तो मिलती है लेकिन बहुत अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड गैस भी उत्पन्न होती है जो कि प्रकृति के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। इसे हमारी पृथ्वी गर्म हो रही है। मौसम चक्र में इसका असर दिख रहा है। ऊर्जा की जरूरत को पूरा करने के लिए ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों के ऊपर निर्भरता को धीरे-धीरे बढ़ानी चाहिए। ग्रीन एनर्जी को बढ़ावा देना चाहिए। हमें ऐसी तकनीक को विकसित करना चाहिए जिससे ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों से ही हमें अधिक से अधिक ऊर्जा मिल सके। सरकार को चाहिए कि जो लोग ग्रीन एनर्जी का ज्यादा उपयोग करते हैं उसको ट्रैक्स में छूट दिया जाए या फिर उन्हें सम्मानित किया जाए। 
प्रकृति हमें अपने ओर खींचती है। 
क्योंकि हम प्राकृतिक तत्वों के साथ गहरा संबंध रखते हैं। और हमारे जीवन के लिए प्राकृतिक माहौल अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यहां कुछ कारण हैं:
आराम और शांति: 
प्रकृति का साथ हमें शांति और सकारात्मकता की अनुभूति कराता है। जंगलों, पहाड़ों, नदियों, और समुद्रों के माध्यम से हम आराम और चैन का अनुभव करते हैं।
स्वास्थ्य लाभ: 
प्रकृति में समय बिताने से हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को लाभ होता है। सूर्य की रोशनी, हवा का शुद्धिकरण, और प्राकृतिक वातावरण में गतिविधियों का हिस्सा बनने से हमें उत्तेजना और स्वस्थ रहने का अनुभव होता है।
संतुलन और उत्साह:
 प्रकृति हमें संतुलन और सहयोग की अनुभूति कराती है। विभिन्न प्राकृतिक दृश्य और वातावरण हमें उत्साहित करते हैं और हमारे जीवन में संतुलन को स्थापित करने में मदद करते हैं।
संवेदनशीलता और सम्बंध: 
प्रकृति हमें संवेदनशीलता की अनुभूति कराती है और हमें हमारे पर्यावरण के साथ संबंध बनाने में मदद करती है। इससे हम प्राकृतिक संबंधों को महसूस करते हैं और अपने पर्यावरण के प्रति सावधान और सहयोगी बनते हैं।

सरकारी संस्थानों, गैर सरकारी संस्थानों, शैक्षिक संस्थानों और धार्मिक संगठनों के द्वारा समय- समय पर वृक्षारोपण करते रहती है। लेकिन उचित देखरेख के अभाव में पौधे बडे नहीं हो पाते। वृक्षारोपण करना जितना ज़रूरी है, उससे भी कहीं ज्यादा ज़रूरी उनका देख रेख करना है। 



हमें एक ऐसी नीति पर काम करना होगा, जिस नीति के तहत पेड़ भी कटे, खनन  भी हो, उद्योग धंधे भी चले,मशीनें भी चले, विकास का कार्य भी हों, लेकिन इस बात पर पूरी ध्यान रखा जाए कि प्राकृतिक संतुलन के ऊपर कोई आंच ना आ पाए। इको सिस्टम हमें विकसित करनी ही पड़ेगी। विकास हमें करनी है लेकिन प्रकृति को दांव में लगाकर नहीं। 



 





01 अप्रैल 2024

एक संदेश समाज के नाम

पेड़ लगाकर हों किसी भी कार्यक्रम का शुभ आरंभ

जो प्रकृतिवादी हैं, जो अपने आपको प्रकृति पूजक कहते हैं , उनका तो प्रकृति संरक्षण में सबसे बड़ा हाथ होना चाहिए । हर पर्व - त्योहार या किसी भी कार्यक्रम का शुरूवात पेड़ लगाकर करना चाहिए। चाहे वह शादी - विवाह हो, त्योहार हो या जन्म दिन हो। इन सब मौकों का शुरूवात वृक्षारोपण के साथ करना चाहिए। क्यों कि वृक्ष ही प्रकृति का गहना होता है। शृंगार को बनाएं रखना हमारे अस्तित्व को बनाएं रखने जैसा है। तभी हम सही मायने में प्रकृति पूजक कहे जाएंगे। 

अपने सुपर फूड का संवर्धन करें

जिस लजीज प्राकृतिक  खान पान के कारण हमारे पूर्वज तंदुरुस्त और निरोग हुआ करते थे । आज हमें उसका स्वाद पसंद नहीं है। हमारे बच्चों ने तो उसका स्वाद चखा ही नहीं कभी और न हमने कभी बताना ज़रूरी ही समझा। जैसे कि कटाई साग, फुटकल साग, कोईनार साग, बेंग साग, चाकोड साग, और न जाने कितने ही है। फिलहाल यह हमारे मेनू से गायब है। यह आदिवासी सुपर फूड हमारे प्रति रक्षा प्रणाली को बूस्ट करने का काम करती है। यह सुपर फूड विटामिन और मिनरल्स का भंडार है। अब यह हमारी जिम्मेवारी है कि इन सुपर फूड का संवर्धन करें और इन्हें बचा कर रखें। और इससे भी ज्यादा जरूरी का बात यह है कि इसे अपने मेनू में शामिल करें।

आदिवासी Millets(श्री अन्न )

आज से दो दसक पहले  तक हम अपने खेतों में  Millets का भरपुर उत्पादन किया का करते थे।बाजारीकरण और low demand के कारण उत्पादन ख़तम हो गया । अभी स्थिति यह है कि ये Millets हमारे थाली से गायब है। हमारे पूर्वज इसकी उपयोगिता बखूबी समझते थे। वे Millets हैं मडुवा, गोडा(रेड rice) , गोंदली और करहाईन धान(ब्राउन राइस)  जो कि हमारे क्षेत्र में बहुत तायत में उगाई जाती थी। कहाँ चले गये ये सब। लाइफ़स्टाइल मोडिफिकेशन के कारण बहुत बड़ी जनसंख्या ओबिसिटी, हाइपरटेंशन, कोलेस्ट्रॉल ,  ट्राइग्लिसराइड और ब्लड सुगर से जूझ रही है। आदिवासी मिलेट्स इन बीमारियों में फूड सप्लीमेंट के रूप में सबसे अच्छा विकल्प है। हमारे पूर्वज इन बीमारियों से कभी पीड़ित नहीं हुए। हमारे पूर्वज श्रीअन्न को, अन्न के रूप में खाते थे और हम अभी दवाइयां को अन्न रूप में खा रहे हैं। इसकी इंपॉर्टेंस को समझते हुए हमारी सरकार ने 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष के रूप में मना रहा है । अपने प्रति रक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए अपने पूर्वजों के बताएं फूड को अपने मेनू में शामिल करना होगा। 

बेटी के पढ़ाई में ध्यान नहीं देना

बेटे की चाह में बेटियों की संख्या को बढ़ा देना। आखिर बेटे की ही चाह क्यों। जबकि सेंस ऑफ रिस्पांसिबिलिटी लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में ज्यादा होती है। जब बात पढ़ाई की आती है तो हम बेटियों के ऊपर कम ध्यान देते हैं बेटों की अपेक्षा। जब परिवार बेटों में बटती हैं तो माता-पिता का सेवा सबसे अच्छा बेटियां ही करती है। जागरूक बेटियों से जागरूक समाज का निर्माण होता है। हमें बेटों और बेटियों दोनों को ही आगे बढ़ने का बराबर मौका देना चाहिए।

गुणवत्ता रहित मानव संसाधन

जब गुणवत्ता पूर्ण मानव संसाधन निर्माण का समय होता है। तब हमारे समाज की युवा शक्तियां गलत आदतों और नशा पान के गिरफ्त में आ जाते हैं। हमारे समाज ने ड्रिंक एंड ड्राइव के कारण कई एक जिंदगियां खोई है। कई एक ऐसे फूल थे जो खेलने से पहले ही मुरझा गए। 
गुणवत्ता रहित मानव संसाधन एक मजदूर समाज का निर्माण loudकरता है। स्किल्ड वर्कर नहीं होने के कारण हम हमेशा प्राथमिक कार्यों में ही लगे रह जाते हैं। और समाज गरीबी के जंजाल में फंस जाता है जो फिर कभी जीवन के उच्चतर स्तर को छू नहीं पता । गुणवत्तापूर्ण मानव संसाधन से परिपूर्ण समाज को ही देश दुनिया पूछती है।

देश को आपकी ईमानदारी और सादगी पसंद है।

 ईमानदारी सादगी और उदारता हम आदिवासियों मे कूट कूट कर भरी हुई है।ये हम आदिवासियों के मुख्य आभूषण है। पूरी दुनिया इन गुणों का सम्मान करती है। हमारे इन्हीं गुणों का जरूरत देश के विकास में भी है। तो क्या आपको मुझे और हम सभी को देश विकास में इन गुना का उपयोग नहीं करना चाहिए? लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हम मानव संसाधन विकास के ऊपर ध्यान नहीं देते और मुख्य धारा में जुड़ नहीं पाते और अपनी बुनियादी कामों में लगे रहते हैं। देश को वह गुण नहीं मिल पाती जो आप में है।

यूनीफामिटी के बिना आदिवासी डांस संभव नहीं

आदिवासी नृत्य बिना यूनीफामिटी के संभव ही नहीं है। आदिवासी सांस्कृतिक नृत्य एक अकेले का नहीं होता। आदिवासी नृत्य लोगों  के समूह का नृत्य है। समूह के बिना नृत्य हो ही नहीं सकती।यह नृत्य समूह का पूरक है। आदिवासी नृत्य सोलो डांस परफॉर्मेंस नहीं है। नृत्य में सिंक्रोनाइजेशन की जरूरत पड़ती है। एक साथ आगे बढ़ा जाता है।एक साथ पीछे लौट जाता है।एक साथ झुक जाता है। एक साथ खड़ा हुआ जाता है।  नृत्य में  कोऑर्डिनेशन ऐसा है की ना तो किसी का हाथ लड़ता है ।ना तो किसी का पैर लड़ता है ना कोई खींचातानी होती है और न कोई टक्कर ही होती है। आदिवासी नृत्य भीड़ कितनी है, में मैटर नहीं करता।
आदिवासी नृत्य सामूहिक एकता, कोऑर्डिनेशन और सिंक्रनाइजेशन का बहुत ही बेहतर उदाहरण है। 
लेकिन हम आदिवासियों में यह गुण क्यों नहीं है। लोगों के बीच वैचारिक विविधता क्यों है। लोगों के बीच में परस्पर एकता का अभाव क्यों है। हमें हमारे पूर्वजों से प्राप्त सांस्कृतिक विरासत से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

हम अपने पुरखों के बताये रास्ते के उलट चल रहें हैं। 

इस संदर्भ में मैं आपको हमारे समाज में गाए जाने वाली पवित्र प्रार्थना(सिरा सीता नाले) की एक लाइन की चर्चा करने जा रहा हूं। वह लाइन इस प्रकार से हैं। नमहय पुरखर नशा पानी मला ओना लग गीयर। आर गुशन सादा धरम रहे चा। ईमन धरम रहेचा। सीधे-सीधे धर्मेश सीन पूजा नना लागियर। 
यह लाइन हम सबको याद तो होगा ही। वर्तमान परिदृश्य में इस लाइन की कितनी प्रासंगिकता है हमारे समाज में। तो क्या हमें नहीं लगता है कि हम अपने पूर्वजों के बताएं रास्ते के उलट है। इस बात से यह साबित होता है कि हमारे पूर्वज नशाखोरी के खिलाफ में थे। तब फिर ,नशाखोरी कैसे, कब, क्यों और किसके द्वारा हमारे संस्कृति का अटूट हिस्सा बन गया। आप हमें बताइए नशाखोरी की पैठ हमारे समाज में कहां तक है। जन्म मे, शादी विवाह में, पर्व त्यौहार में, धार्मिक अनुष्ठानों में और दुःख में। इसकी पहुँच कहाँ नहीं है। सच मायने में अगर कहा जाय तो हमारा समाज नशाखोरी के जबड़े में है। 

नशीली पेय  को लेकर मिस परसेप्सनस क्यों है 

हमारे आदिवासी समाज में नशीली पेय पदार्थ के रूप में हडिया और महुआ का दारू का प्रचालन है। सबसे बड़ी ताजुब की बात यह है की हड़िया को हमने कभी शराब माना ही नहीं। और इसको संस्कृति के साथ जोड़ दिया। हडिया अन्न के फर्मेंटेशन से बनता है। महुआ का दारू फूलों से डिस्टलेशन प्रक्रिया से बनता है। यह दोनों ही शराब है और दोनों का में कंटेंट अल्कोहल है। जिस पेय पदार्थ से नशा हो उसमें अल्कोहल है। अगर बात करें अल्कोहल सांद्रता की तो हडिया में दो से तीन पर्सेंट अल्कोहल है और महुआ में 15 से 20%।

हमारे समाज में बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो नशापन छोड़ने के नाम पर हडिया और महुआ का दारू नहीं पीते हैं लेकिन विदेशी शराब(ललका) मिलने से बड़े चाव से पीते हैं। यह सभी शराब है। सभी में मुख्य कंटेंट के रूप में अल्कोहल है जिसका अनुचित उपयोग हमारे लिए हानिकारक है।

प्रकृति का संरक्षण में ही हमारी अस्तित्व है।

जब आज हम सभी सरहुल पर्व मनाने के लिए एकत्रित हुए हैं। यह हम सभी को पता है कि यह प्रकृति का महा पर्व है। प्रकृति ही सभी जीव जंतुओं का आवास है। प्रकृति के साथ ही हमारा अस्तित्व जुड़ी हुई है। हमारी सांसे प्रकृति से चलती है। प्रकृति ही हमारा भरण पोषण करती है। जिस तरह से हम अपनी जरूरतों के लिए प्रकृति का विनाश कर रहे हैं,प्रकृति हमे कभी माफ़ नहीं करेगी। प्रकृति को बचा कर रखना ही हम आदिवासियों की सबसे बड़ी ईश्वर भक्ति होगी। 














19 जून 2023

ईश्वर के लिए सब एक हैं

चलिए आज हम प्रकृति के ऐसे यूनिवर्सल प्राकृतिक शक्ति के बारे में बात करेंगे जो ब्रह्मांड के संपूर्ण वस्तु या जीव पर विद्यमान है। यह एक ऐसी शक्ति है जिसके बूते सारा ब्रह्मांड चलता है। यही बल सारा ब्राह्मणडीय पिंडों को व्यवस्थित रखता है। हमारा मनुष्य जीवन भी इससे अछूता कतई नहीं है। 

वह बल है गुरुत्वाकर्षण बल। किन्ही दो वस्तुओं के बीच लगने वाले बल को गुरुत्वाकर्षण बल कहते हैं । यदि उनमे से एक पृथ्वी हो तो, ऐसी स्थिति में यह बल गुरुत्व बल कहलाता है। 
यहाँ पर इस शक्ति की व्याख्या हम गणितीय रूप मे नहीं करेंगे। मैं आपको यहां पर यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि किस तरह से प्राकृतिक शक्तियां किसी पर कोई भेद नहीं करती। चाहे वह जीव हो या निर्जीव, छोटा हो या बड़ा,अमीर हो या गरीब, विद्वान हो या मूर्ख। 

चलिए इसको समझने के लिए एक प्रयोग करते हैं। इस प्रयोग को करने के लिए हम कुछ चीजों की जरूरत पड़ेगी। 
1. दो किलो का एक पत्थर का टुकड़ा। 
2. एक किलो का एक लकड़ी का टुकड़ा। 
3. एक किलो रुई। 
4. एक किलो मिट्टी । 
5. एक पानी का बोतल भरा हुआ बिना वजन के। 

इन अलग अलग सामानों को पकड़ने के लिए पांच अलग अलग लोग चाहिए और एक कैमरामैन प्रयोग को रिकॉर्ड करने के लिए। टोटल छः लोग। पाँचों सामान लेकर छत में जाना होगा और कैमरामैन को जमीन में रहना होगा। सामानों को एक ही बार में छत से नीचे गिरना होगा और इसे कैमरे में रिकॉर्ड करना होगा। इस प्रयोग को तीन से चार बार दोहरना होगा। 

इस प्रयोग की कुछ शर्तें होंगी। 
1. जमीन से सामानों की दूरी/ऊंचाई फिक्स होगा। 
2. जमीन समतल होना चाहिए। 
3. सामान को गिराना है फेंकना नहीं है। 
4. सामान एक ही साथ एक ही ऊंचाई से गिराई गयी हों। 


निष्कर्ष से पहले हमारी सोच

इस प्रयोग का निष्कर्ष निकलने को यदि कहा जाए तो हम maximum लोगों का जवाब होगा
जो सामान जितना भारी होगा वह उतनी ही तेज़ी से नीचे को गिरेगा। 
हल्का सामान थोड़ा धीरे और बाद में नीचे गिरेगा।

इस प्रयोग का निष्कर्ष
1. किसी भी चीज़ का, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव, ऊपर से नीचे गिरना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि वह कितना भारी है। 
2. ऊपर से नीचे गिरने की रफ़्तार एक सामान होगी। 
3. ऊपर से एक साथ नीचे गिराई गयी विभिन्न वस्तुएं जमीन से एक ही साथ टकराईगी और एक ही आवाज निकलेगी। मतलब टकराने की एक आवाज होगी आगे पीछे नहीं। 


Note:- प्रतिरोध रेट ऑफ फॉलिंग को प्रभावित कर सकता है। 

 
इस प्रयोग से यही साबित होता है कि ईश्वरीय या प्राकृतिक शक्तियां सबके लिए एक सी होती हैं। सबके ऊपर एक सा लागु होता है। नेचर अपना नेचर कभी नहीं बदलती। नेचर के अनुसार हमें ढलना पड़ता है। 

मान लीजिए आप बहती नदी में तैर रहे हैं। आपको तैरना नहीं आता तो आप अवश्य डूबेंगे। पानी आपकी दुश्मन  नहीं है । वह जानबूझकर हमें नहीं डूबाती।  पानी में तैरने और डूबने का एक नियम होता है । उसे  नियम को आपको जानना पड़ेगा। जब आपको वह नियम पता हो, तो आप कभी डूब ही नहीं सकते। यह नियम सिर्फ हम पर लागू नहीं होती । यह सभी जीव जंतुओं पर लागू होती है। 
इसी तरह जब कभी भी हम अपने जीवन में दुखों के जंजाल में फसते है। चुकी दुःख, हमारे जीवन का हिस्सा होता है। हम सभी अपने जीवन के अलग - अलग स्तर पर दुखों का सामना करते हैं। लेकिन दुखों के जंजाल से निकलने की प्रक्रिया सबकी अलग - अलग होती है। कोई जंजाल मे फँस जाता हैं तो कोई दुखों मे तैर कर और भी मज़बूत हो जाता है। 

प्रकृति का जो सार्वभौमिक नियम है वह सबके ऊपर बराबर लागू होता है। उनके लिए ना कोई प्रिय है और ना अप्रिय। तेज आंधी कभी भी किसी के साथ कोई भेद नहीं करती। रास्ते में आने वाले सभी वस्तुओं को वह एक समान धकेलती है। क्या जीव, क्या निर्जीव, क्या पेड़ ,क्या पौधे और क्या घर। 
लेकिन जब हमें आंधी के हवा को काटने का नियम पता हो, तो आंधी कितनी भी तेज क्यों ना हो,  उस आंधी का हमारे पर कोई असर नहीं पड़ता। प्रकृति मे survive करने के लिए प्राकृतिक नियम को समझना ज़रूरी है। 

ईश्वर ने हमारी रचना की। ईश्वर के कृत्य की यूनीफामिटी देखिए। चाहे वह मनुष्य किसी भी देश या किसी भी भूभाग का हो। आंतरिक संरचना और उनकी क्रियाविधि एक सी है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और चिकित्सीय परीक्षण एक सी हैं। हमने अलग अलग लोग बांटें। देश बांटें, ईश्वर बांटें, उपासना पद्धति बांटे, धर्म बांटें।  ईश्वर ने हमें कभी नहीं बाँटा। 
हम अक्सर कहते हैं कि इस पद्धति से ईश्वर की उपासना करो, ईश्वर जल्दी मिलेंगे और आपकी मनोकामनायें सिद्द होंगे। ईश्वर का हमारी स्तुति का सुनना इस बात पर निर्भर नहीं करता कि आप कहाँ से (विशेष स्थान) कैसे (उपासना पद्धति) कर रहें हैं। अक्सर हम जिस विधि का उपयोग करके चीजो की कामना करते है वह कभी मिल ही नहीं सकती। ईश्वर स्तुति से भौतिक चीजो को प्राप्त करने के लिए  आन्तरिक ऊर्जा मिलती है। अगर हम किसी चीज की कामना करते है तो उस चीज को प्राप्त करने की जो क्रिया विधि है, जो प्रोसेस है उसे जानना होगा। 
आप स्टूडेंट हैं, और अच्छे अंक की कामना करते है तो आप को सम्पुर्ण पाठ्यक्रम को ठीक से जानना होगा। 
आप अच्छा स्वास्थ्य चाहते हैं तो अच्छी आहार और अच्छी आदतों को जानना होगा। 
ईश्वर के स्तुति करके हम चमत्कार की उम्मीद कर बैठते हैं जो कि कभी सिद्ध नहीं होगा। ईश्वर भी तभी आपके लिए कुछ करेगा जब आप कुछ करेंगे।
ईश्वर से जुड़ने का मतलब हमारे अंदर की आंतरिक शक्ति को जागृत करना है। हमारी आंतरिक मन ही उर्जा का कभी समाप्त ना होने वाला असीम श्रोत है। लेकिन हम ज्यादातर मनुष्य इसे कभी जान ही नहीं पाते। शारीरिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ होने के बावजूद अगर आप मानसिक रूप से कमजोर हैं तो कोई भी काम सिद्ध नहीं होगा। शारीरिक शक्तियां तभी काम करती है जब वह आंतरिक ऊर्जा स्रोत से जुड़ी हुई हो। 

धन्यवाद।






 




04 मई 2023

अंधविश्वास।

 अंधविश्वास क्या है। 













ऐसे तर्कहीन धारणाएं, मान्यताएं या विश्वास , जिसका कोई  युक्ति संगत वैज्ञानिक आधार नहीं होता है। घटनाओं का कारण हमेशा पीछे छिपी, अदृश्य अलौकिक शक्तियों का ,हाथ होने की मनगढ़ंत, आधारहीन व्याख्या की जाती है ।  कारणों को लेकर हमेशा गलत अवधारणाएं होती हैं । अदृश्य , अलौकिक शक्तियों का अंजाना डर बना रहता है। और यह डर ,जीवन भर रहता है।  जब तक ज्ञान रूपी प्रकाश से अज्ञानता रूपी पर्दा हट नहीं जाता। 
हमारे जीवन में बहुत से ऐसी घटनाएं होती है ,जिन घटनाओं के कारणों के बारे  में हमें पता नहीं होता ,और उन कारणों के पीछे अज्ञानतावस हम अदृश्य शक्ति का होना मान लेते हैं। यह मन मस्तिष्क में ऐसे बैठ जाती है जो कभी जाते हीं नहीं। 

अंधविश्वास इतना प्रचलित क्यों है। 

विज्ञान का काम करने का एक तरीका होता है ।किसी भी घटनाओं को वैज्ञानिक कसौटी या सिद्धांतों से सिद्ध करने के लिए अनेक प्रक्रियाओं से होकर गुजरना पड़ता है। सबसे पहले घटनाओं को बहुत ही बारीकी से अवलोकन किया जाता है। घटना की प्रकृति को समझने की कोशिश की जाती है।  घटनाओं से रिलेटेड सभी जरूरी जानकारी इकट्ठा की जाती है। एकत्रित डाटाओं विश्लेषण किया जाता है। विश्लेषण के आधार पर परीक्षण की जाती है। परीक्षणों से प्राप्त परिणामों के निष्कर्ष निकाला जाते हैं। निष्कर्ष के आधार पर यह तय होती है कि घटना की वास्तविकता क्या है। विज्ञान प्रयोगों से प्राप्त जानकारियां होती है। किसी भी तथ्य को वैज्ञानिक कसौटी से पास होने के लिए काफी लंबा समय, धन, एकाग्रता और निरंतर प्रयोग की आवश्यकता होती है। 

जबकि अंधविश्वास में किसी भी तथ्य को स्थापित होने के लिए कोई निश्चित मापदंड या तरीका नहीं है। इनकी व्याख्या मनगढ़ंत और अतार्किक होती है। किसी भी घटना के कारणों के बारे में अपने अनुभव के आधार पर अदृश्य शक्ति के साथ जोड़ देते हैं। यह बहुत ही सरल सिंपल , मुक्त और तीव्र है। 

अंधविश्वास विकास का सबसे बड़ा बाधक

अंधविश्वास और विज्ञान दोनों एक दूसरे के विपरीत ध्रुव हैं। एक ही घटनाओं को लेकर दोनों का नजरिया बिल्कुल भिन्न है । अशिक्षा और अंधविश्वास दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जहां अंधविश्वास होगा वहां विकास की उत्कृष्टता हो ही नहीं सकती। अंधविश्वास की व्यापकता अशिक्षा पर ही निर्भर करता है। मनुष्य इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा विकसित और परिवर्तनशील प्राणी है । भारत के प्रसंग में अंधविश्वास की अगर बात करें तो बहुत बड़ा जनसंख्या अंधविश्वास के गिरफ्त में है। अंधविश्वास ऐसी मानसिक बीमारी है जो वास्तविक कारणों से कोसों दूर रखती है। सच्चाई तक कभी पहुंचने ही नहीं देती। यह नया कुछ जानने से रोकती है। वैचारिक जड़ता उत्पन्न होती है। यह हमें भाग्य के भरोसे जीना सिखाती है। जिस वजह से प्रोडक्टिविटी रुक जाती है। यह मन में अनिश्चितता और अनजान भय का माहौल उत्पन्न करती है। अंधविश्वास से ग्रसित आदमी हमेशा व्याकुल और डरा हुआ होता है। अंधविश्वास में लोग ऐसे ऐसे काम करते हैं जो हास्य का कारण बनता है। 

अंधविश्वास फैलती कैसे हैं

हमारे समाज में फैले ज्यादातर अंधविश्वास हानि रहित होता है।अंधविश्वास हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन गया है। यह सब हमें बिल्कुल नॉर्मल सी बात लगता है। बस हम उसके महत्व और कारण को जाने बगैर, अनुसरण करते ही चले जाते हैं । अंधविश्वास को या तो हम अपने समाज से सीखते हैं या फिर अपने परिवार से। लगातार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बने रहने के कारण यह हमारे परंपरा का हिस्सा बन जाता है । इसी तरह से अगर कोई अंधविश्वास धर्म का हिस्सा बन जाता है तो, उस अंधविश्वास को, धर्म का सह मिल जाता है । जिस अंधविश्वास को धर्म का सपोर्ट मिलता है या धर्म का हिस्सा बन जाता है, फिर बाद मे यह संसय का कारण बन जाता है। 

भारत में प्रचलित कुछ हानिरहित अंधविश्वास के प्रकार

बिल्ली का रास्ता काटना। - अशुभ
रात को काली बिल्ली का आवाज। -अशुभ
बन रहे नये घर के बाहर झाड़ू, चप्पल, सूप या नागफनी के कांटे को टंगना। -टोटका
सुबह सुबह घर के बाहर कौवे का आवाज करना। -अशुभ समाचार
खाते समय छींकना। - किसी का याद करना
खड़ा होकर खाने से खाना घुटने में चला जाता है। -मिथ
कोई भी शुभ कार्य या परीक्षा में जाने से पहले दही खाकर निकलना। -शुभ
जोड़े में मैना का दिखना। -शुभ
सिक्के को नदी मे फेकना। शुभ
दक्षिण की ओर सिर करके नहीं सोना। -अशुभ
बच्चों में हिचकी को रोकने के लिए सूती कपड़े का गाँठ को माथे मे रखना। -टोटका
टूटी हुई आइना को देखना। -अशुभ
दाहिने आँख का फड़कना। 
हाथों में खुजली होना। 
खाते समय हिचकी का आना। -याद किये जाना। 
घर के बाहर नींबू मिर्च लटकाना। 

और ना जाने कितने ही ऐसे उदाहरण हैं। 

अंधविश्वास से कौन लोग ज्यादा प्रभावित हैं

अंधविश्वास का सीधा संबंध अज्ञानता से है। जहां शिक्षा की कमी होगी वहां अंधविश्वास होगा। ज्यादातर अशिक्षित लोग अंधविश्वास पर विश्वास करते हैं। कोई भी ऐसी घटना नहीं होती है जो बिना किसी कारण के घटित हो। हर घटना के पीछे कोई ना कोई कारण होती जरूर है। सभी घटनाओं के पीछे या तो भौतिक कारक होती हैं, रासायनिक कारक होती हैं या मनोवैज्ञानिक कारक। लेकिन अज्ञानता वस या जानकारी के अभाव में घटित घटनाओं के कारणों के पीछे, ऐसी शक्ति के ऊपर दोष  दिया जाता है जो exist ही नहीं करती । 

वैसे समुदाय जो मुख्यधारा से कटा हुआ होता है । जिनका अन्य लोगों के साथ मेल मिलाप या जुड़ाव नहीं हो । दूरदराज वाले इलाके, जहां सड़क कनेक्टिविटी और सरकारी योजनाओं की पहुँच बहुत कम हो । जाहिर सी बात है वहां शिक्षा का स्तर निम्न होगा। यहां अंधविश्वास से ज्यादा लोग घोषित होंगे। अंधविश्वास की घटनाएं यहां ज्यादा देखने और सुनने को मिलेंगी । 
यह तो सिर्फ कहने को है कि  गांव और अशिक्षित लोग ही अंधविश्वासी होते हैं। लेकिन आपको यह जानकर बड़ा ताज्जुब होगा कि पढ़े लिखे लोग भी अंधविश्वासी होते हैं और अंधविश्वास को फॉलो करते हैं । 

अंधविश्वास और काम मे प्रभाव

इस कथन को चरितार्थ करने वाली एक घटना की चर्चा करते हैं। यह बात बहुत पहले की है। किसी कालखंड में एक बड़ा प्रसिद्ध व्यापारी हुआ करता था। उनका बड़ा नाम था। उसे राजा के महल में किसी सामान की आपूर्ति के लिए कॉन्ट्रैक्ट मिला। व्यापारी बहुत खुश था। उसने सामान एकत्रित करना शुरू कर दिया। निश्चित तयशुदा तारीख को विशेष अनुष्ठान के लिए सामान की डिलीवरी देनी थी। उसने सारा सामान बैलगाड़ी में लादकर सामान के डिलीवरी के लिए राजा के महल की ओर चल दिया। कुछ ही दूर गया होगा की एक बिल्ली ने रास्ता काट दिया। अशुभ संकेत मानकर व्यापारी वापस घर को लौट गया। उधर लोग व्यापारी का इंतजार करते रहे। नहीं आने के कारण को जानकर राजा ने उस व्यापारी को दिए सभी व्यापारिक कॉन्ट्रैक्ट, जुर्माना के साथ बंद करवा दिया ।  समाना पूर्ति के लिए राजा को तत्काल में किसी दूसरे व्यापारी से सम्पर्क करना पड़ा। राजा उनके काम से खुश होकर उन्हें ढेर सारे हीरे जवाहरात और उपहार दिए।
इसी तरह हमारे लाइफ में भी कई एक ऐसी घटनाएं होती है जिसको हम अशुभ संकेत मानकर अपना काम को छोड़ देते हैं या किसी और दिन के लिए टाल देते हैं। प्रोफेशनलिज्म को लेकर लोगों को हमारे ऊपर शक होने लगता है फिर भी हम से काम लेना बंद कर देते हैं। बहुत बार ऐसा होता है कि हमारे द्वारा छोड़ा गया काम फिर कभी शुरू हो ही नहीं पाता या फिर बहुत देर हो जाता है।

अंधविश्वास और व्यक्तित्व

अंधविश्वास के साए में रहने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व कमजोर, भयभीत और संकुचित मानसिकता वाला होता है। वह हमेशा झूठसच को, सच मान रहा होता है । सुनी सुनाई और मनगढ़ंत सच के उपर उसका अटूट विश्वास होता है। जब कभी भी उसका विश्वास टूटता है या विश्वास के खिलाफ कोई काम हो रहा होता है तो उसका विरोध करता है। आंखों में लगा पर्दा हटता है यह सच्चाई से रूबरू होता है तो बड़ा शर्मिंदगी महसूस करता है। फिर लोगों के लिए हास्य का कारण बनता है।

अंधविश्वास और मानसिक जडता

अंधविश्वास हमें कुछ नया करने से रोकती है। सदियों से चले आ रहे पारंपरिक तौर तरीके को बनाए रखने में जोर देती है । हमें सिर्फ जोन में रहने को मजबूर करती है। हमें सवाल करने से रोकती है। 

अंधविश्वास को बल

अंधविश्वास को मिलने वाला बल, सबसे ज्यादा इस बात पर निर्भर करता है कि उसका अनुसरण कितना प्रतिष्ठित व्यक्ति कर रहा है । चाहे वह प्रतिष्ठित व्यक्ति लोगों का दिल जीतने या उनसे जुड़ने के लिए  ही क्यों ना कर रहा हो , लेकिन इसका प्रभाव आम लोगों या fans के ऊपर बहुत ज्यादा पड़ता है । क्योंकि आम लोग प्रतिष्ठित लोगों को अनुसरण करना चाहते हैं। उन्हें रोल मॉडल मानते। वैसे प्रतिष्ठित लोगों को पब्लिकली अंधविश्वास को फॉलो करने से बचना चाहिए क्योंकि उन्हें फॉलो करने वाला बहुत होते हैं। चाहे वह राजनेता हो, फिल्म स्टार हो, टीवी एंकर हो,खिलाडी हो,शिक्षक हो या कोई famous personality हो। टीवी प्रोग्राम और फिल्मों के कुछ कंटेंट ऐसे होते हैं जो अंधविश्वास को पोषित करती हैं। ये कंटेंट जनमानस के मस्तिष्क में बैठ जाती हैं। 

अंधविश्वास से प्रेरित अपराध

अभी के दौर में जब विज्ञान ने हर क्षेत्र में इतना प्रगति किया है, लेकिन फिर भी,जब कभी अंधविश्वास से प्रेरित घटनाएं देखने और सुनने को मिलती है, तो दिल को बड़ा आहत आहत पहुंचती है। जैसे कि काला जादू और डायन प्रथा। इस तरह की ज्यादातर घटनाएं सुदूरवर्ती इलाकों या ऐसे समुदाय में ज्यादा होता है जहां शिक्षा का स्तर बहुत कम या नहीं के बराबर होता है। किसी भी अप्रिय घटनाओं का कारण काला जादू या डायन प्रथा को माना जाता है। आरोपित व्यक्ति के साथ अज्ञानता वस मारपीट, लड़ाई झगड़ा और समाज से बहिष्कृत किया जाता है। जबकि उस आदमी विशेष का इस घटना के साथ कोई संबंध नहीं होता है। बहुत बार अप्रिय घटनाओं का संबंध पूर्व जन्म के पाप के साथ जोड़ा जाता है। 
विज्ञान के इस युग में अंधविश्वास से प्रेरित अपराध प्रगतिशील मानव समाज के लिए अभिशाप है।


लेख को सुनने के लिए इस लिंक पर click करें। https://youtu.be/lT9xrqbEOW0




ध्यान पूर्वक इस लेख को पढ़ने के लिए दिल से आभार व्यक्त करता हूं। आशा करता हूं इस लेख में दी गई जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित हुई होगी । प्रेरणादायक उपयोगी लेख को पढ़ने के लिए जुड़े रहे। 
धन्यवाद

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01 मई 2023

आदिवासियों से दुनियां क्या सीख सकती है।

     अगर दुनिया को बचाना है तो हमें आदिवासियों की तरह प्रकृति प्रेमी होना पड़ेगा। हमें प्रकृति के साथ सह अस्तित्व की जीवन शैली अपनानी होगी। आदिवासियों का प्रकृति प्रेम जीवन के प्रारंभ से लेकर जीवनपर्यंत तक रहता है। सच मायने में अगर देखा जाए तो एक सच्चा आदिवासी एक प्रकृति विज्ञानी से कम नहीं होता। उन्हें अपने वातावरण के सम्पूर्ण पेड़ पौधों की उपयोगिता और उनकी महत्व के बारे में जानकारी जन्म से ही होती है। क्योंकि उनके पूर्वजों के द्वारा ये जानकारी उन्हें स्वता ही मिल जाती है।  पेड़-पौधे का कौन सा भाग खाया जाता है ? कौन सा भाग औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है कब खाया जाता है कैसे खाया जाता है उन्हें सब कुछ पता होता है। ऐसे ऐसे चीजों के बारे में उन्हें पता होता है जिनके बारे में लगभग पूरे दुनिया के लोगों को पता नहीं होता है। आदिवासी अपने आप में एक इंस्टीट्यूट के समान है।अपने आप में ही वे ऑटोनॉमस बॉडी है। हमें बहुत नजदीक से प्रकृति से उनके जुड़ाव को सीखने की जरूरत है।मौसमों के बदलाव का असर उनके शरीर पर बहुत कम होता है।इसको पूरा दुनिया मानती है।आदिवासी हार्ड इम्युनिटी वाले होते है। उन्हें कोई गंभीर बीमारियों की समस्या भी बहुत ही कम होती है। आदिवासी बहुत बड़े प्रकृति पूजक होते हैं। उनके सारे के सारे पर्व त्यौहार प्रकृति से ही जुडी हुई होती हैं  । हमेशा से ही प्रकृति को बचाने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं।प्रकृति को कभी नुकसान नहीं पहुंचाते हैं बल्कि उनका संरक्षण और संवर्धन करते हैं।क्योंकि उन्हें बखूबी पता है कि प्रकृति है तो हम हैं। प्रकृति के बिना धरती पर मनुष्य जाति का अस्तित्व ही नहीं है।


आदिवासी गाँवों के नाम होते बहुत ख़ास है। 

आदिवासियों के जीवन में प्रकृति से जुड़वों  की घनिष्ठता इतनी प्रबल है कि उनके गाँवों के नामों में भी इसका असर दिखता है। पेड़ पौधों से इनका संबंध बहुत गहरा है। और हो भी क्यों न। क्योकिं प्रकृति हमें जीवन देती है। इसी लिए वे प्रकृति का संरक्षण भी करते है। अक्सर देखा ये जाता है कि किसी भी जगह ,गाँव, कस्बा  या शहर का नाम हमेशा किसी व्यक्ति विशेष, लैंड मार्क , ऐतिहासिक या धार्मिक महत्व के आधार पर रखा हुआ होता है। लेकिन आपको यह जान कर बड़ा अचंभा होगा कि अक्सर उनके गाँवों का नाम पेड़ों के नाम पर होता है। अगर किसी गाँव में पीपल का पेड़ ज्यादा होगा तो उस गाँव का नाम पीपल/पिपर टोली होगा। बांस ज्यादा होने पर बांस टोली होगा।  इसी तरह से बर (बरगद) टोली, जामुन टोली, आम्बा(आम) टोली, करंज टोली, तेतर टोली(इमली),सेंबर टोली(सेमल) आदि। और ना जाने कितने ही ऐसे गाँवों के नाम होंगे जो कि पेड़ों के नाम पर रखा हुआ है। और खास बात यह है कि जिस गांव का नाम जिस पेड़ के नाम से पड़ा हुआ होता है, उस गांव के लोग उनका यह परम कर्तव्य होता है कि उस प्रजाति के पेड़- पौधों का संरक्षण करें । वे उस विशेष प्रजाति के पेड़ का संरक्षण भी करते हैं। इस तरह का परंपरा शायद ही कहीं देखने सुनने को मिलती है।  हमें ऐसी परंपरा को बनाये रखने और फैलाने की जरूरत है ताकि प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन हो सके। 

आदिवासियों के सरनेम होते बड़े ख़ास

इस पृथ्वी पर मानव जीवन का अस्तित्व में बने रहना तभी संभव है ,जब प्रकृति की कृपा हम पर होगी। प्रकृति को "जीवनदाता" कहना, कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लगभग हम, सभी आवश्यकताओं के लिए, प्रकृति पर ही निर्भर है। मनुष्य हमेशा से ही प्रकृति का दोहन करता रहा है। हम में से बहुत कम लोग ही Nature preventive होते हैं। आदिवासी लोग प्रकृति की importance को हमेशा समझा है। हमेशा से ही प्रकृति का संरक्षण करता रहा है। आप को यह जान कर बड़ा अचंभा होगा कि इन्होंने कैसे कैसे नायाब तरीके अपनाये हैं। इस तरह का इंप्रेसिव तरीके और कहीं देखने सुनने को नहीं मिलती। 

इनमें से एक तरीका है, अपने नाम के साथ पेड़ पौधों, पक्षियों, जानवरों, सरीसृपों, जालीय जीव और धातुओं के नामों को जोड़ना। जैसे- टोप्पो, खलखो, मिंज, लकड़ा, किसपोट्टा,धान, आदि। इसी प्रकार से और भी कई एक सरनेम हैं जिसका संबंध जीव जंतुओं या पेड़ पौधों से हैं । प्राकृतिक सरनेम रखने के पीछे आदिवासियों का main moto प्रकृति संरक्षण और एको सिस्टम को कायम रहना है । इसको हम इस तरह से समझते है। पक्षी की एक विशेष प्रजाति का नाम टोप्पो होता है। टोप्पो सरनेम वाला व्यक्ति उस पक्षी विशेष का संरक्षण करेगा। उसको कभी भी क्षति नही करेगा।अगर कोई व्यक्ति क्षति पहुँचाने की कोशिश करता है तो उसको रोकेगा। उस जीव विशेष का भक्षण जीवन में वह कभी नही करेगा। एको सिस्टम में महत्व रखने वाले लगभग सभी जीव जंतुओं के नाम से उनके सरनेम हैं। दर्जनों सरनेम का मतलब, दर्जनों जीव जंतुओं और वनस्पतियों का संरक्षण और संवर्धन । प्रकृति को बचाए रखने और एको सिस्टम को कायम रखने का यह तरीका बहुत ही प्रभावशाली है। 

 आदिवासी  superfood

 आदिवासियों के खानपान में सम्मिलित खाद्य पदार्थ अन्यों  से  बिलकुल ही भिन्न हैं । दुनिया का ध्यान कभी इनके फूडिंग हैबिट्स  (Fooding habits ) पर गया ही नहीं । इनके  superfood की  जानकारी इन्टरनेट तक में भी उपलब्ध नही  है। यह अभी तक  commercialized हुआ नही हैं । लोगों को इनके बारे में जानकारी नही होने के कारण availability सिर्फ limited क्षेत्रों में ही हैं जहाँ ये रहते हैं । सभी फूड्स इम्युनिटी बूस्टिंग (immunity  boosting) हैं। यही वजह है कि इनको use करने वाले  लोग बीमार बहुत कम पड़ते हैं और यदि  बीमार पड़ भी गये तो  बहुत जल्द रिकवर हो जाते हैं। इनके सभी superfood पूर्ण रूप वनस्पतिक हैं । उनमे से कुछ एक  की  जानकारी निम्न हैं।

जैसे फुटकल साग ,कोयनर साग ,टूम्पा साग ,कटाई साग ,तीसरी साग ,धेपा साग ,सनई साग , चिमटी साग ,बेंग साग। लेकिन  आधुनिकता की असर इसमें बहुत ज्यादा पड़ा है। उन सब चीजों का खानपान में चलन  कम होता जा रहा है ।कुछ चीजों का वर्णन करने जा रहा हूँ । हमें इनको बचाकर रखने की जरुरत है। फुटकल साग झारखंड में निवास करने वाले लगभग सभी आदिवासियों को इसके बारे में जानकारी है। इन्हें बनाने की कई एक विधियां है। जिन्होंने भी इसको खाया है वह इन्हें कभी भूल नहीं सकता। यह खटाई के लिए जानी जाती है। इनमें कई एक औषधीय गुण पाए जाते हैं। इनका आचार भी बनाया जाता है।चटनी बहुत लाजवाब होता है। दुनिया इसकी स्वाद को अभी तक चखा ही नहीं होगा। यह किसी सुपर फूड से कम नहीं है। एक बार आप सभी इसका स्वाद जरूर लें।  

सादगी के मूरत

सादगी और ईमानदारी आदिवासियों की पर्याय होती है। बेईमानी धोखाधड़ी और छल कपट इन से कोसों दूर है। आदिवासी विश्वास के पर्याय हैं। बहुसंख्यक आदिवासी सादा जीवन जीते हैं। ये बहुत शांतिप्रिय और अपने एरिया में रहना पसंद करते हैं। उनकी रहन-सहन मान्यताएं और खानपान और से बिल्कुल भिन्न है। यह प्रकृति के बहुत बड़े उपासक होते हैं। अपने आप को प्रकृति पूजक कहते हैं। और हो भी क्यों ना क्योंकि इनकी सारी धार्मिक मान्यता है प्रकृति से जुड़ी हुई है। यह अपने पुरखों से प्राप्त ज्ञान का अनुसरण करते हैं। पुरखों से प्राप्त सारा ज्ञान इनके गीतों में समाहित है। इनकी इतिहास गीतों में ही लिखी है। हर मौसम के लिए अलग गीत और नृत्य है। गीत संगीत और नृत्य इनके जहन में रचा बसा है। 

दहेज़ प्रथा 

आदिवासी समाज की सबसे अच्छी बात दहेज प्रथा का प्रचलन में नहीं होना है। दहेज प्रताड़ना की घटना कभी सुनने को नहीं मिलती। दहेज के लिए कोई भी बेटियाँ सताई या मारी नहीं जाती।बेटियों को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। बेटियां कभी बोझ नहीं मानी जाती। बेटियों के विवाह को लेकर कभी कोई समस्या नहीं होती। आदिवासी समाज में कभी कन्या भ्रूण की घटना देखने सुनने को नहीं मिलती। 

आदिवासी महिला 

आदिवासी अर्थव्यवस्था में महिलाओं का भागीदारी बराबरी का होता है।परिवार चलने में घर की महिलाओं की अहम भागीदारी होती है। हर काम में महिलाएं हाथ बटाती हैं।आदिवासी महिला सशक्त और मजबूत होती हैं। धार्मिक क्रियाकालापों में महिलाएं एक्टिवली भाग लेती हैं।

ज्ञान का केंद्र

धर्मकुड़िया आदिवासियों का सबसे पवित्र स्थलों में से एक माना जाता है। यह आदिवासियों की बहुउद्देशीय शैक्षणिक संस्थान है। यहां पर हर विधा की जानकारी दी जाती हैं। चाहे वह धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो, कानून व्यवस्था की हो, आर्ट ऑफ लिविंग हो या समय के मांग के हिसाब से कोई जरूरी चीज ही क्यों ना हो, की जानकारी दी जाती है। सप्ताह में एक दिन यहां पर धार्मिक सभाएं आयोजित की जाती है। उस दिन धर्म की बातें कही, सुनाई और बताई जाती है। गांव का शासन व्यवस्था किस तरह से हो इसके बारे में पहले से मौजूद नियम की जानकारी दी जाती है या तो फिर जरूरत पड़े तो नया नियम बनाए जाते हैं । जिसे सबको मानना होता है। जब इनका विशेष त्यौहार आने वाला होता है, तो उस  त्यौहार की तैयारी के लिए, उस त्यौहार में उपयोग होने वाले गीतों का रिहर्सल होता है । नृत्य का रिहर्सल  होता है।नई generation अपनी धार्मिक परंपरा की जानकारी हासिल करती है। 

विवादों का निपटारा भी धूमकुरिया में ही होता है। बच्चों को शिक्षित करने के लिए रात्रि पाठशाला चलाई जाती हैं। यह आदिवासियों के लिए ज्ञान का केंद्र होता है। 

चुनाव प्रक्रिया

आदिवासी समाज में चुनाव की प्रक्रिया सबसे अलग है। समाज में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित पद पाहान का होता है। बाकी सब उनके सहयोगी होते हैं। इस चुनाव प्रक्रिया को लेकर कभी विवाद नहीं होता। पद को चुनने की उनकी पारंपरिक विधि है। इसमें किसी एक व्यक्ति को चुनकर उनके आंखों में काली पट्टी बांधी जाती है। धार्मिक अनुष्ठान के बाद उस व्यक्ति को गांव के बीच में लाकर छोड़ दिया जाता है। आंखों में पट्टी बंधा व्यक्ति जिस किसी के घर में जाकर घुसता है, उसी घर के व्यक्ति को तीन वर्ष के पाहान के रूप में चुन लिया जाता है। गांव के सभी बड़े काम उनके आदेश से होंगे। 

आदिवासी विद्रोह

भारत के प्रसंग में यदि बात करें, तो 1857 के सिपाही विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई माना जाता है। लेकिन 1857 के पहले भी अंग्रेजों के विरुद्ध आदिवासियों द्वारा कई लड़ाइयां लड़ी गई। पराधीनता आदिवासियों को कभी भी मंजूर नहीं था। आदिवासी कभी अंग्रेजों के गुलाम नहीं रहे । जल जंगल जमीन भाषा संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए हमेशा अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते रहे । तिलका मांझी के नेतृत्व में 1785 की तिलकामांझी विद्रोह। वीर बुधु भगत के नेतृत्व में 1832 की लार्का विद्रोह।तिरोत गाओ की खासी विद्रोह 1833। तेलंगा खरिया की नेतृत्व में 1850 की तेलंगाना खरिया विद्रोह। सिद्धू और कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में 1855 की संथाल विद्रोह। निलंबार और पीतांबर का विद्रोह 1857। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इनको वह जगह नहीं मिल पाई जो कि मिलनी चाहिए थी । 


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28 अप्रैल 2023

सुविधाएं कैसे काम करती है?

सुविधाएं उत्पादकता बढ़ाती है

सुविधाएं हमारी कार्य क्षमता को बढ़ाती है। जिसके परिणाम स्वरूप प्रोडक्टिविटी बढ़ती है। सुविधाएं ऐसे औजार या साधन होते हैं जो काम हम कर रहे होते हैं उस काम को बेहतर और सुंदर ढंग से कम समय में करने के लिए हमारा सहायक होता है। आधुनिक युग में हम सुविधाएं प्रदान करने वाली साधनों से गिरे हुए हैं। आधुनिक युग में हम मनुष्य का जीवन इस तरह से बदल चुका है कि सुविधाओं के बिना जीवन की कल्पना करना एकदमएकदम ही मुश्किल है। जीवन इसके बिना एकदम से रुक जाएगी। जीवन में हर वो काम जो हमें जीवित रहने के लिए करना पड़ता है उन सभी चीजों को करने के लिए साधन उपलब्ध है। सुविधाएं हम मनुष्य जीवन को चमत्कारिक रूप से बदल दिया है। सबों को सभी सुविधाएं उपलब्ध हो यह जरूरी नहीं है। सभी को सब कुछ प्राप्त नहीं है। उनके लिए एक निश्चित धनराशि जो चुकानी पड़ती है। सुविधाओं के साधन हमारे समय को काफी बचा दिया है। दिनों का काम घंटों में हो जा रहा है। और घंटों का काम मिनटों में सटीकता के साथ हो रहा है। हम मनुष्य का जीवन पूरी तरह से सुविधाओं के साधनों पर निर्भर  हो गया है। हम पूरी तरह से सुविधाओं के साधनों से गरे हुए हैं। 

चाहे वह रसोई हो सड़क या अपना कोई भी कार्य क्षेत्र सुविधाओं के साधनों ने पूरी तरह से अपना स्थान पक्का कर लिया है। बीते कुछ सालों में यातायात और कम्युनिकेशन में सबसे ज्यादा परिवर्तन हुआ है। पूरे विश्व सुविधाओं के बाजारों से भरा पड़ा है। पूरी संसार सुविधाओं को जुटाने और सुविधाएं उपलब्ध कराने में लगी हुई है।

कहने के लिए तो हर काम को करने के लिए सुविधाओं के अनेक साधन उपलब्ध है । लेकिन क्या इन सुविधाओं के साधनों की उपलब्धता सबके लिए है। क्या बहुसंख्यक लोग इन सुविधाओं के साधनो को पाने में सक्षम है। 

चलिए इसको हम एक उदाहरण से समझते हैं । 
हमारे देश के हर एक गाँव, कस्बा, तहसील, और शहरों में स्कूली शिक्षा की सरकारी व्यवस्था है। इसके बावजूद धड़ल्ले से अच्छे से अच्छे प्राइवेट स्कूल खुल रहे हैं।दोनों के शैक्षिक स्तर में काफी अंतर होता है। जब कि प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों का बेतन सरकारी के अपेक्षा बहुत ही कम होता है फिर भी private स्कूलों का परिणाम हमेशा से अच्छा रहा है। इसका कारण है अच्छी सुविधाएं। 

एक बच्चा जो कि सम्पन्न परिवार से आता है। उनके अभिभावक कभी सरकारी स्कूलों मे अपने बच्चों को नहीं भेजेगा। क्योंकि सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की अभाव होती है। शैक्षणिक स्तर  और शैक्षिक माहौल भी ठीक नहीं होती है। इंफ्रास्ट्रक्चर का बड़ा अभाव होता है । शिक्षकों का अभाव होता है। लाइब्रेरी या नहीं होती है। ना कंप्यूटर होता है और ना ही इंटरनेट की व्यवस्था। सरकारी स्कूल के बच्चों को एक्सपोजर बहुत कम मिलता है।

अगर हम बात करें प्राइवेट स्कूलों की तो वहां पर स्टूडेंट टीचर का अनुपात बिल्कुल सही होता है। बच्चों में कंपटीशन की भावना उत्पन्न की जाती है। प्राइवेट स्कूलों में शैक्षणिक माहौल को काफी ध्यान दिया जाता है। पढ़ाई लिखाई से संबंधित जितने भी आधुनिक चीजों की आवश्यकता होती है वह सभी प्राइवेट स्कूलों में उपलब्ध होती हैं। प्राइवेट स्कूल के बच्चे सुविधाओं के साथ पढ़ाई लिखाई में दौड़ते हुए आगे बढ़ रहे हैं जबकि साधन विहीन बच्चे पढ़ाई लिखाई में पैदल चल रहे हैं । इंटरनेट और कंप्यूटर की शिक्षा पर विशेष ध्यान दी जाती है। प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई ही नहीं बल्कि खेलकूद में बहुत ज्यादा ध्यान दिया जाता है। हर तरह के इंडोर गेम, हर वह गेम जिसकी जरूरत है सिखाई जाती है। लाइब्रेरी और लेबोरेटरी में विशेष ध्यान दी जाती है।
अभी के समय में अगर हम पढ़ाई लिखाई की बात करें तो कंप्यूटर और इंजीनियर दो ऐसे साधन है जो पढ़ाई लिखाई के क्षेत्र को बहुत ज्यादा पोस्ट किया है। इंटरनेट में पढ़ाई लिखाई की वह सारी चीजें उपलब्ध होती है जो हमें चाहिए होती है अभी के समय में पढ़ाई लिखाई के लिए ऐसी ऐसी सुविधाएं अवैलाबल हैं जो हमारे स्टडी को बूस्ट करती है। अभी के समय में कोई भी सवाल unsolved नहीं रह जाता है अगर इनका सही इस्तेमाल किया जाय तो। 

एक गरीब परिवार का बच्चा चाहे वह कितना ही होशियार क्यों ना हो, सुविधाओं के अभाव में वह, वह मुकाम हासिल नहीं कर पाता जो सुविधा युक्त बच्चे करते हैं। ऐसे बहुत कम ही लोग होते हैं जो अभाव में रहकर बड़ी सफलताएं हासिल की हो। सुविधाओं से युक्त एक होशियार बच्चा बहुत बड़ी बड़ी सफलताएं हासिल कर सकता है। 
पैसा, सुविधा खरीदने का सबसे बड़ा यक्ति है। जिनके पास पैसा होता है वह सभी सुविधाएं जुटाने में लगा ही रहता है। और उन सुविधाओं से बड़ी बड़ी सफलता हासिल करता है। सुविधा विहीन लोग उसके बारे में सोच भी नहीं सकते। सुविधाएं हमें कहाँ से कहाँ ले जाती हैं। सुविधाएँ हमें मजबूती प्रदान करती हैं। साधनों के बिना विकास की रफ्तार बहुत ही धीमी होती है।

सुविधा के होने के वजह से एक दूसरा पक्ष भी उभर कर आती है। एक संपन्न परिवार का बच्चा सुविधाओं के साधनों से गिरा हुआ होता है । उनके पास अभाव नाम की कोई चीज नहीं होती। लेकिन वह उसकी इंपोर्ट्स को समझ नहीं पाता । सुविधाओं के साधनों का मिस यूज करता है। सेल्फ डेवलपमेंट एक्टिविटी में ध्यान नहीं देता। राजकुमार वाली जिंदगी जीता है। उन्हें पता होता है कि उनके पास सभी चीज अवेलेबल है। बाद में यही सोच उनके पतन का कारण बनता है।
वही एक गरीब परिवार का बच्चा सुविधाओं के अभाव में रहते हुए सुविधाओं के इंपोर्टेंस को समझता है। और ऐसे कोई भी काम नहीं करता है जो उसके पतन का कारण बने। वहां अपने सेल्फ बिल्डिंग के बारे में बहुत ज्यादा ध्यान देता है। जो कुछ भी सुविधाएं उसके पास उपलब्ध होती है उसका वह एक्सट्रीम लेवल पर यूज करता है ।
सुविधाएं अक्सर हमारे गति को तेज करने के लिए होती हैं ना की गति को रोकने के लिए। सुविधाओं के होते हुए भी पतन का होना सुविधाओं के मिस यूज को दिखाता है।

यह कहना तो बिल्कुल भी सही नहीं होगा की सुविधाएं हमें कमजोर भी बना रही है। लेकिन यह बिल्कुल सही है । आज के समय में हम अपने शरीर का उपयोग उतना नहीं कर पा रहे हैं जितना पहले सुविधा रह लोग किया करते थे। सुविधाओं के अभाव में हमारा शरीर काम भी नहीं कर पाता है। सुविधाओं के चलते हम दिनोंदिन शारीरिक रूप से कमजोर होते चले जा रहे हैं। पहले जमाने के तुलना में हम सारे ग्रुप से 10 परसेंट भी एक्टिव नहीं है । इसको हम कुछ इस तरह से समझते हैं। अभी के समय में खाली पैर चलना हमारे लिए बहुत मुश्किल की बात है । बिना जूते चप्पल के हमारे पैरों में दर्द होने लगते हैं। हम लंबी दूरी तक पैदल चल भी नहीं पाते। हमारी याद करने की क्षमता भी कम होती जा रही है क्योंकि हमें कोई भी चीज याद करने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि जरूरत की सारी चीज है हमारे स्मार्टफोन में उपलब्ध होती हैं । अभी के समय में हमें मुश्किल से एक या दो ही मोबाइल नंबर याद होते हैं या इतना भी नहीं। हमारे राइटिंग भी ठीक नहीं होती क्योंकि हम लिखते ही नहीं है। हमारी आंखें कमजोर होती जा रही हैं इनकी हम दिन भर स्मार्टफोन और टीवी में देखते रहते हैं । 

सुविधाएं हमें अपनों से वर्चुअली तो नजदीक लाया है लेकिन हम फिजिकली दूर होते चले जा रहे हैं। सुविधाओं के साधनों के द्वारा हम अभी जितने लोगों को जानते हैं वर्चुअली, ऐसा पहले कभी नहीं था। वर्चुअली हमारे सैकड़ों फ्रेंड होते हैं लेकिन शायद ही हम उनसे कभी मिल पाते हैं। हम अपनी संवेदनाओं को वर्चुअल ही व्यक्त करते हैं। कहने को तो हम दूसरे के नजदीक है लेकिन दूर होते चले जा रहे हैं। यह वर्चुअल दूरियां हमारे इमोशनल अटैचमेंट को खत्म कर रही है। सुविधाएं हमें अपने तक ही सीमित रहना सिखा रही है। हम अक्सर अपने में ही खोए हुए रहते हैं।

सुविधाएं हमें घर तक ही सीमित रख रही है। पहले जमाने के बच्चे खेलने के लिए दिन भर घर के बाहर हुआ करते थे अपने दोस्तों के साथ। बगीचा में खेतों में, खेल के मैदानों में धूल में खेलते रहते थे। लेकिन अभी के ज्यादातर बच्चे सुविधाओं के साधनों की गेम खेलते रहते हैं। अभी के ज्यादातर अभिभावक भी यही चाहते हैं कि उनके बच्चे ज्यादातर टाइम घर में ही रहे। इस वजह से बच्चे बचपन में ही मिट्टी से दूर हो जाते हैं। बचपन में खेले जाने वाले बहुत से ऐसे खेल तमाशे हुआ करते थे जो कि बिल्कुल ही विलुप्त होते चले जा रहे हैं। अभी के बच्चों को वह खेल के बारे में बिल्कुल भी जानकारी नहीं है। अभी के बच्चों में पहले के बच्चों के मुताबिक इम्यूनिटी बहुत वीक होती है । 
सुविधाओं के साधन हमें प्रकृति से दूर कर रही है। पहले के लोग जब कभी भी उदास या दुखी होते थे तो वह प्रकृति के बीच जाकर बैठ जाते थे और प्रकृति को अपना दुख दर्द सौंप देते थे । लेकिन अभी के समय में हम जब उदास या दुखी होते हैं तो सुविधाओं के साधन में दुख दूर करने की उपाय को ढूंढते हैं या दूर करने की कोशिश करते हैं। 








31 मार्च 2023

तनाव एक अदृश्य दुश्मन।

   

  आज हमारे पास विज्ञान के हजारों वारदान प्राप्त हैं और दिन  प्रतिदिन प्राप्त हो भी रहें हैं ऐसे ऐसे उपकरण अपने पास उपलब्ध हैं, जिनकी कार्य प्रणालियां हमें  अचंभित कर देती हैं आज हम चाँद  तक में भी अपना परचम लहरा चुके है ।समुद्र की गहराइयों को नाप चुके हैं बौजुद इसके आज मनुष्य एक अभिशाप से थक सा गया है उपभोग की सारी चीजें और उन्नति बेकार हो जाती हैं  वह अभिशाप कोई और नही हमारे जीवन में उत्पन्न तनाव है ।समस्याओं के कारण हम तनाव से ग्रसित नहीं हैं बल्कि हमारे तनावग्रस्त होने से समस्याएँ होती हैं। 

हमारे चारों ओर घाट रही घटनाओं और मन में चल रही अंतरी मनोवैज्ञानिक संदेशों को खतरे के रूप में देखने या समझने के फलस्वरुप जो प्रतिक्रिया की जाती हैं ,वही तनाव है।

जब हमारे मन मस्तिष्क से भयभीत, बेचैन, अशांत, दुविधाजनक पूर्ण, थके हुए, उबावपन ,उलझे हुए  एवं द्वंद्वग्रस्त महसूस करते हैं ,तो उसे ही  हम तनाव कहते हैं।

जब हम अपने जीवन में किसी इच्छित फल की प्राप्ति नहीं कर पाते  हैं तो उससे उत्पन्न प्रतिक्रिया को तनाव कहते

इसको हम ऐसे भी समझ सकते हैं ।  यह एक ऐसी रथ  है, जिसमें कई घोड़े  अलग-अलग दिशाओं में जुते हुए हैं, जो अपनी-अपनी दिशा में रथ  को खींच रहे है । इसी परस्पर खींच-तान को तनाव कहते हैं ।

 तनाव को परिभाषित करने का कोई निश्च्चित पैमाना नहीं हैं । मन एक सुपर कंप्यूटर हैं जिसमे एक साथ सैकड़ों विचार चल रहे होते हैं ।

तनाव का होना साफ शब्दों में कहें तो यह एक मानसिक स्थिति है जो कि हमारे दिमाग में चल रहा होता है । घटनाएँ सदैव तनाव का कारण नहीं होती हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि आप घटनाओं को किस रूप में लेते और उनसे  कितना प्रभावित होते हैं। घटना की व्याख्या एवं विश्लेषण से हमारा रवैया तय होता है। हमारा रवैया ही तनाव होने और नहीं होने का कारण है। 

उदाहरण के तौर पर, अगर हम  कहते हैं  कि 'क्या फर्क पड़ता है , तो मुझे कोई तनाव नहीं होता है । यदि हम यह सोचते हैं  कि 'बहुत फर्क पड़ता है , तो तनाव का बढ़ना स्वाभाविक हैं

 

तनाव बहुआयामी है। मानसिक तनाव होने से हर व्यक्ति का अनुभव भिन्न-भिन्न होते हैं और प्रभाव भी अलग-अलग व्यक्तियों पर अलग-अलग होता है। इसलिए इनको जीतने की एक ही विधि नहीं हो सकती है। हम तनावों से क्यों घिरे हुए हैं? अनुमानतः कहा जाए तो तनाव इसलिए भी हैं , क्योकि हमारा जीवन जीने की तरीका अव्यवस्थित और लक्ष्य हीन हैं । यह तनाव स्वयं के द्वारा  पैदा किए हुए हैं । तनाव हमारे लालच और इज्जत के कारण बनता हैं।

तनावों को हम बेवजह भी  पैदा करते हैं। इसको हम एक उदहारण से इस प्रकार से भी समझ सकते हैं ।

 

एक रेलगाड़ी तेज गति से भागी जा रही थी, उसमें बैठे एक यात्री को सभी दूसरे यात्री डिब्बे में आते-जाते देख रहे थे । वह यात्री अपने सिर पर अटैची व बिस्तर रखे हुए था। वह स्वयंसेवक की तरह आदर्शवादी आदमी दिखाई पड़ता था। एक व्यक्ति ने पूछा, 'भाई साहब सिर पर सामान क्यों उठाए हुए हो ?'उस व्यक्ति ने जवाब दिया, 'मैं अपना बोझ स्वयं उठाता हूँ, किसी अन्य पर वजन नहीं लादता हूँ।'

जब स्वयं ट्रेन में बैठा है तो वजन रेल पर नहीं पड़ रहा है, यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था। ठीक वैसे ही हम भी बहुत से तनाव सिर पर उठाए चल रहे हैं।जबकि उन्हें नीचे रखा जा सकता है। 

मित्रो कुछ भार सूक्ष्म व अदृश्य होते हैं, जो दिखते तक नहीं हैं। तनाव ठीक इसी प्रकार के भार हैं, जो हमें दिखाई नहीं पड़ते हैं।स्थूल बोझ दिख जाता है। असली दिक्कत यही है कि इन तनावों को हम अपने सिर पर लादे हुए हैं।कहीं हम अपने सिर पर पेटी बिस्तर पकड़कर तो रेलगाड़ी में नहीं बैठे हैं। क्योंकि हमने बहुत से यात्रियों को निम्न प्रकार का बोझ अपने सिर पर लादे हुए देखा है।

अतीत का बोझ, स्मृति का बोझ, पश्चात्ताप का बोझ, शिकायतों का बोझ,सपनों का बोझ, इच्छा का बोझ, महत्त्वाकांक्षाओं का बोझ, कल्पनाओं का बोझ, 'मैं' का बोझ, 'मेरेपन' का बोझ, तुलना का बोझ , मुख्य होने का बोझ, सामाजिक भय का बोझ ,प्रतिष्ठा का बोझ ,परंपरा का बोझ ,व्यक्तिगत रहस्यों का बोझ, प्रेम संबंधों का बोझ, बदले का बोझ, अज्ञात व अनजान बोझ

जानवरों को कोई तनाव नहीं होता है, क्योंकि वे प्रकृति प्रदत्त सहज जीवन जीते हैं। जीवन शैली में उन्होंने अपनी टाँग नहीं अड़ाई है। इसीलिए उनको डॉक्टरों की जरूरत हमसे कम पड़ती है।   

तनाव हमेशा ही शत्रु नहीं होते हैं। वे हमें समय-समय पर चेतानेवाले मित्र भी हो सकते है। परीक्षा के तनाव से विद्यार्थी तैयारी अच्छी करता है, अभिनेता डर से अच्छा अभिनय करता है। सफलता का प्रयास एक प्रकार का तनाव ही तो है। इस तरह के तनाव हमारे मित्र भी होते हैं। अनेक बार ऐसे तनाव हमें उत्पादक व रचनात्मक बनाते हैं।

तनाव के साथ जीना सीखने की जरूरत है। प्रेरक गुरु प्रेरित करने के लिए जो तनाव बढ़ाते है, ये लाभदायक होते हैं। तनाव बिजली की तरह एक खराब मालिक एवं अच्छा नौकर है। 

जैसे बिजली का उपयोग मालिक बनकर अनेक तरह से किया जा सकता। जब व्यक्ति बिजली को  नियंत्रित नहीं करता है तो वहीं बिजली व्यक्ति को अपार क्षति पंहुचा सकता । इसलिए तनाव का उपयोग अपने पक्ष में करने के लिए उस पर नियंत्रण जरूरी है। पानी और भोजन की तरह उससे बचा नहीं जा सकता है। संतुलित जीवन जीने के लिए उसका यही उपयोग करना आना चाहिए।

तनाव एक शक्तिशाली स्थिति है, जो या तो बहुत लाभदायी या नुकसान का कारण हो सकती है। यह बहती नदी के समान है जब आप इस पर बाँध बनाते हैं तो पानी की दिशा को अपनी इच्छानुसार बदल सकते हैं; परंतु जब नदी पर बाँध नहीं होता हैं तो उसके जल का इच्छित उपयोग संभव नहीं है तनाव के साथ भी ऐसा ही है।

यदि हम तनाव का प्रबंधन ठीक से नही करते है तो  कई प्रकार की शारीरिक बीमारियाँ, जैसे- उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, मधुमेह  आदि पैदा कर सकता है और कर रहा है। तनाव का उपचार सभी चाहते हैं, लेकिन तनाव हो ही नहीं, इसकी व्यवस्था बहुत कम लोग कर पाते हैं। जैसा कि सभी जानते हैं की ईलाज से बेहतर उसको आने से रोकना । यानी रोग को आने ही न दें इसलिए तनाव को आरंभिक स्तर पर रोकना उचित हैं । मात्र बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति को ही तनाव नहीं होता है। तनाव तो होगा, पर उसे रोका जा सकता है।सफलता प्राप्ति के प्रयत्नों में बहुत से तनाच आते हैं। इन तनावों के आने से कई बार सफलता भी भार लगने लगती है। ऐसे में तनाव मुक्त सफलता प्राप्त करें। वैसे सफलता के लिए भाग दौड़, कड़ी मेहनत, संघर्ष एवं स्वयं को दबाना पड़ता है। अनेक तरह के समझौते करने पड़ते हैं। मन को केंद्रित करना पड़ता है। इस प्रक्रिया में तनाव सहज आ जाते हैं। कई बार तो ये तनाव सफलता तक को बेकार कर देते हैं।

सभी तनाव घातक नहीं होते हैं। कुछ तनाव जीवन में आवश्यक होते हैं। हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। ऐसे तनावों को हम अच्छे तनाव कह सकते हैं। कुछ तनाव प्रारंभ में घातक नहीं होते हैं। इस संबंध में लचीलेपन के नियम को जानना अच्छा है। किसी भी ठोस को उसकी एक लचीलेपन की सीमा तक खींचा जाए तो वह खींचना बंद करने पर फिर से पहले वाली अवस्था में आ जाता है। लेकिन उसको लचीलेपन से अधिक खींचा जाए तो वह स्थायी रूप से विकृत हो जाता है , अपनी पहलेवाली अवस्था में नहीं आता है। इसी तरह तनावों की भी एक सीमा होती है। व्यक्ति के तनाव सहने की शक्ति अलग-अलग होती हैं, जैसे भय को लें भय तब तक उपयोगी है जब तक वह कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन ज्यों ही भय की मात्रा बढ़कर इतनी हो जाए कि भयभीत व्यक्ति कार्य न कर सके और वह हतोत्साहित हो जाए

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